Saturday, 1 October 2011

फिर कब मिलोगे तुम ?


 by Suman Mishra on Sunday, 02 October 2011 at 02:54

होती है जिन्दगी भी, कुछ अलग सी सभी की,
शाखों से लगा पत्ता, या टूट कर जुदा सा,
गतिमान हो गया अब , जब सांस नहीं बाकी
भूल जाना मुझको , अब हम नहीं रहे हम



कभी हम मिले थे जाने की जल्दी थी,
अब नहीं है याद मुझे जाने कब मिले थे ,


वो समा कुछ और था,
वो पल था एक भुलावा,

वो तुम भी कुछ और थे,
और हम भी हम कहाँ थे .


एक था गुल और एक थी बुलबुल ,
दोनों जहां मैं रहते थे ,
ये कहानी बड़ी पुरानी,
तुमने कहा हम सुनते थे,

कुछ सरगोशियाँ, कुछ तकरीरें,
कुछ गजलें, कुछ समय की शहतीरें,
सब हैं वहीं पे मौजू, सब वही पे है शैदा
पर हम नहीं तुम्हारे ये तुम्हे ही पता है

हर शाम अब तुम्हारी , हर दास्ताँ तुम्हारी ,
मजमून बांच कर हम, बस तुम्हें सोचते हैं,
वो ख़त कभी लिखे थे , जो पेशकश तुम्हारी
सब बंद लिफाफे से , जेहनों की एक तिजोरी,

कल खोल कर पढ़ा था, सब याद हो गया है,
क्या सुन सकोगे उनको,  दुनिया नयी  तुम्हारी.
हम शाख से अलग हैं , उड़ते हैं   इस जहां मैं,
इक उम्र जी रहे हैं , अब शाख से जुदा हैं .


होती है जिन्दगी भी, कुछ अलग सी सभी की,
शाखों से लगा पत्ता, या टूट कर जुदा सा,
गतिमान हो गया अब , जब सांस नहीं बाकी
भूल जाना मुझको , अब हम नहीं रहे हम



दस्तूर ये जहां का, जाना है तो बुलाना    ,
इसलिए मैंने पूछा कब आ रहे हो मिलने
 

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