Thursday, 13 October 2011

माँ और वात्सल्य


माँ और वात्सल्य

by Suman Mishra on Friday, 07 October 2011 at 18:12

बचपन और माँ
बहुत विराट शब्द ये "माँ " है, सारी शक्ति इसीमें सिमटी,

स्पर्श और मर्म की ब्याख्या , माँ ही पूर्ण खुद से कर सकती,
जादू है माँ के  हाथों मैं, रवि तक माँ ही पहुंचे देखो,
हम मांगे बस चंदा मामा, सूरज भी ये लाकर दे दे,
बहुत कठिन हैं माँ का बनाना, देव तुल्य सब मात्री रूप मैं,
वरद हस्त गर माँ का हो बस, माँ तो रोम रोम मैं बस्ती.

मेरे एक भाई बनाम मित्र ने कहा आप माँ और वात्सल्य पर लिखिए , मैंने पाया ये शब्द जितना
करीब है इंसान से उतना ही अछूता है शब्दों से, लोग  प्रेम, विरह, व्यथा, अजीबो गरीब

भावनाओं मैं भ्रमित भावों  मैं तिरते रहते हैं, क्यों ?? अगर माँ साथ है तो क्या जरूरत है परेशान होने की
लेकिन माँ की शक्ति जो इंसान के अन्दर निहित है भूल जाते है, माँ जगत दात्री , माँ धरा जिस पर हम  इतने बडे होते हैं
और माँ जिन्होंने हमें जनम दिया और इस शब्द से ही सारे वेद पुराण गुंथे पडे हैं, क्या कहेंगे इस शब्द के लिए, अनुकम्पा हो
माँ की तभी इस शब्द की महिमा बयान करने का सामर्थ्य मिल सकता है,


एक माँ है पूरा जीवन दायरा परिवार उसका,
ह्रदय की धड़कन धडकती, मन है रहता बस भटकता,
चूल्हे की अग्नि दहकती, माँ का तन भी साथ तपता,
मन तडपता रात दिन बस , उसका दिल अब कहाँ उसका.

आड़ी तिरछी रेखाएं दीवाल पर कितनी बनायी,
माँ का थप्पड़ और आंसू, प्यार का स्पर्श पाना,
फिर वही वापस कहाँ मार खाना भूल जाना,
माँ और बचपन एक ही है, एक है ये ताना बाना ,

माँ का हो गर साथ तो उड़ चले हम बिना पंखे ,
गिर पडे जो हम धरा पर , फ़ैली हों गर माँ की बाहें,
कोई भी दस्तूर हो सब माँ के शब्दों से ही बनता,
हम है माँ से माँ हमारी, पयार की भाषा मैं बसती.


क्या कहूं मैं शब्द महिमा , पूछो जिनकी माँ नहीं है,
एक पल ना भूलती वो, सोचते वो माँ यहीं है,
कुछ मिले या ना मिले , बस ये आँचल सदा देना,
माँ निहित स्पर्श उसका, पिता हो संग येही कहना ...जय हो,

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