by Suman Mishra on Sunday, 09 October 2011 at 19:09
एक उम्र का मुकाम.
बड़ी अजीब शख्शियत से दौर गुजरा था,
बडे बड़ों के सामने कभी झुका ना था ,
बडे आये गए दुआ सलाम का वो दौर चला,
उसकी महफ़िल और वो अपनी जगह काबिल था.
मगर ये उम्र भी खुद को ज़रा झुकाती है,
थोड़ी आँखों मैं ज़रा ज़रा नमी लाती है,
खुद पे रोये नहीं कभी और ना गैरों पे,
मगर धुंधली हुयी तो थोड़ा सहम जाती है
ये वो एक दौर है मायूसी का आगाज यहाँ,
कहीं रुकना कहीं चलना ,नहीं परवाज यहाँ
ये ही तो समय है जब उसके दरमियान हैं वो,
जिसके सजदे मैं कभी सर नहीं झुकाया था.
वक्त की मार और पत्थर ने तराशा खुद को,
आंधी तूफ़ान उसे छु के गुजर जाते हैं,
जिसने देखा नहीं उसने ठोकर खाई,
आखिर ये मोम से टुकडे ही तो थे कभी,
ठोकरों से ही पत्थर से नज़र आते हैं.
उससे कह तो दिया अब मेरे तुम हमराह नहीं,
दूर तक देखा तो बस वो हो नज़र आता था,
उसकी आँखों के दिए रोशनी है राहों की
खुद मैं देखा तो बस वो ही अक्स पर काबिज.
इतनी पत्थरदिली बस शब्दों मैं आसान नहीं
ये तो लम्हा है हवा संग गुजर जाता है,
कैसे तोडें हजार रिश्तों के बराबर वो है,
कभी पत्थर से हम और मोम पिघल जाता है,
बड़ी तलवारें और खंजरों की बाबत से
जीता अशोक ने जाने यहाँ जमीन कितनी
खून के छींटे उडे बारिशों के मंजर थे
दिलों की धडकने रुक रुक के नजर पर ठहरी,
कितनी आँखों से याचना की भीख छलकी थी,
जाने क्यों लोग रहम सीख नहीं पाते हैं
भूख साम्राज्य और जान की की कीमत लेकर
आज अब भिछु से भिखारी नज़र आते हैं .
कर्म से पत्थरों की शान ज़रा सा रख लो ,
दिल को ना आस पास इसके कहीं जाने दो,
दिल दिमाग की फितरत बड़ी ही मुश्किल है
जाने कब कौन यहाँ पत्थरों मैं तब्दील करे.
मन के आंसू कहाँ कोई भी देख सकता है,
ये तो वो भाव हैं चेहरे से गुजर जाते हैं,
एक समंदर वहाँ उफान लेता रहता है,
अब तो मुश्किल है समझना किसी को मोम कहे
या नवाजें पत्थर,,,,,
बड़ी अजीब शख्शियत से दौर गुजरा था,
बडे बड़ों के सामने कभी झुका ना था ,
बडे आये गए दुआ सलाम का वो दौर चला,
उसकी महफ़िल और वो अपनी जगह काबिल था.
मगर ये उम्र भी खुद को ज़रा झुकाती है,
थोड़ी आँखों मैं ज़रा ज़रा नमी लाती है,
खुद पे रोये नहीं कभी और ना गैरों पे,
मगर धुंधली हुयी तो थोड़ा सहम जाती है
ये वो एक दौर है मायूसी का आगाज यहाँ,
कहीं रुकना कहीं चलना ,नहीं परवाज यहाँ
ये ही तो समय है जब उसके दरमियान हैं वो,
जिसके सजदे मैं कभी सर नहीं झुकाया था.
वक्त की मार और पत्थर ने तराशा खुद को,
आंधी तूफ़ान उसे छु के गुजर जाते हैं,
जिसने देखा नहीं उसने ठोकर खाई,
आखिर ये मोम से टुकडे ही तो थे कभी,
ठोकरों से ही पत्थर से नज़र आते हैं.
उससे कह तो दिया अब मेरे तुम हमराह नहीं,
दूर तक देखा तो बस वो हो नज़र आता था,
उसकी आँखों के दिए रोशनी है राहों की
खुद मैं देखा तो बस वो ही अक्स पर काबिज.
इतनी पत्थरदिली बस शब्दों मैं आसान नहीं
ये तो लम्हा है हवा संग गुजर जाता है,
कैसे तोडें हजार रिश्तों के बराबर वो है,
कभी पत्थर से हम और मोम पिघल जाता है,
बड़ी तलवारें और खंजरों की बाबत से
जीता अशोक ने जाने यहाँ जमीन कितनी
खून के छींटे उडे बारिशों के मंजर थे
दिलों की धडकने रुक रुक के नजर पर ठहरी,
कितनी आँखों से याचना की भीख छलकी थी,
जाने क्यों लोग रहम सीख नहीं पाते हैं
भूख साम्राज्य और जान की की कीमत लेकर
आज अब भिछु से भिखारी नज़र आते हैं .
कर्म से पत्थरों की शान ज़रा सा रख लो ,
दिल को ना आस पास इसके कहीं जाने दो,
दिल दिमाग की फितरत बड़ी ही मुश्किल है
जाने कब कौन यहाँ पत्थरों मैं तब्दील करे.
मन के आंसू कहाँ कोई भी देख सकता है,
ये तो वो भाव हैं चेहरे से गुजर जाते हैं,
एक समंदर वहाँ उफान लेता रहता है,
अब तो मुश्किल है समझना किसी को मोम कहे
या नवाजें पत्थर,,,,,
No comments:
Post a Comment