Sunday, 30 September 2012

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में by Suman Mishra on Wednesday, 19 September 2012 at 15:02 ·

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में

by Suman Mishra on Wednesday, 19 September 2012 at 15:02 ·


मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित
एक दावानल सा विखरूं मैं
सोने की लंका तार तार
बस रूप विश्व का बदलूँ मैं

नव वस्त्र पहन कोपल फूटे
हम  स्वप्न से जागे हों जैसे
पहली ही नजर में रूप अलग
जल थल के माने अलग थलग


उल्का पातों की बारिश में
मानव अग्नि सा दहक उठे
हर कदम बढे ललकारों से
हुंकारती ध्वनि सा बहक उठे

कण कण धरती दहला दे
बस अग्नि शिखा बन भास्मित हो
सब ताप राख नव निर्मित हो
जीवन का नया स्वरुप सजे


अब अग्नि फूल बन धरती पर
स्वर्णित आभा मदमाती हो
जलना होगा सबको पहले
जीवन की चाह से आप्लावित 


मैं बिखर विखर जाऊं जग में
माना ये ताप का उद्द्बोधन
मैं अग्नि की वीणा से झंकृत
दूं बदल विश्व हो आह्लादित ,

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