चिंतन कुसुम
by Suman Mishra on Sunday, 16 September 2012 at 16:32 ·
चिंतन कुसुम कुम्हला गया था
कल उसे देखा था खिलता हुआ
सूरज को निहार रहा था
अपनी कोमल पंखुरित आँखों से
माना की सूरज प्रबल था
हल्का सा लाल पर सबल था
खुमार था आँखों का वो
वो पुष्प भी तो अटल था
वो झड़ गया था ताप से
उफ़ ! तक नहीं, चुपचाप से
अपनी दिलेरी में रहा
ना अंत पश्चाताप से
चिंतन कुसुम कुसुमित करू
मानव परिधि में ही रहूँ
कूंची कलम में छिपा है
शतदल से कर्जों को भरू
सूखे हुए बदरंग से
खुशबू उडी सब छोड़ कर
लाऊँ कहाँ से वो सबा
सिल पंखुरी जीवित करू
कभी ना देखा था मैंने
उनकी तरुनाई सुबह सुबह
लाल सूरज के सामने इठलाना
निमीलित आँखें ,खुमारी से तंग
खिड़की से वो मुझे बुलाते थे
मेरी तुलिका की सोच से आगे
उनके रंग जो सूरज भी आत्मसात करले
मेरे चिंतन कुसुम मैं आ रही हूँ
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