Sunday, 30 September 2012

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा (PART 1) "बचपन"

पलकों के पीछे का जीवन कितना सच्चा कितना झूठा (PART 1) "बचपन"

by Suman Mishra on Friday, 28 September 2012 at 00:31 ·



सपनो का क्या है रोज ही आते हैं
सपनों  को भी उम्र का लिहाज है
अपनी उम्र के हिसाब से ही दीखते है
फिल्मों की तरह बिना टिकट जाने कितने देखे हैं


किसी बात पर जिद्द तगड़ी थी
जिद्द की एक पगड़ी पहनी थी
नहीं उतारूं जिद्द थी मेरी
अरमानों की लिस्ट बड़ी थी


लक्छ्य स्वप्न में आकर ठहरा
आ आ कर बातें करता था
मैं खुद को महसूस करू जो
वस्त्र पहन वो आ मिलता था



स्वप्न और मेरी मन आँखें
एक बंद एक खुली हुयी थीं
एक धरा पर  बंधी हुयी सी
एक गगन में विचर रही थी


भेद भेद कर चाँद की दूरी
प्रश्नों सी बौछार चांदनी
शब्दों के ये जाल नहीं है
ये सच उलझे बात अधूरी


सुबह सुहानी गीत राग सी
मन झंकृत स्वप्नों की थाह से
क्या है नया आज जो मिलना
या फिर बुने कुछ अलग माप से



मेरे स्वप्न आज तुम जागो

खुली आँख और पग धरती पर

सच कर ही सोयेंगे अब तो
 स्वप्न चाँद सूरज के घर पर.

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