Sunday, 30 September 2012

आकांछा अपेक्छाओं के रेतीले पाषाण हैं (श्री प्रतुल मिश्र जी का विचार)

आकांछा अपेक्छाओं के रेतीले पाषाण हैं (श्री प्रतुल मिश्र जी का विचार)

by Suman Mishra on Tuesday, 11 September 2012 at 11:37 ·



आकांछा , अपेक्छा , रेतीले पाषाण
बिना जमीनी माप के महल
बनते ही चले जाते हैं
अट्टालिकाओं की तरह
ऊंचाई को छूते हुए ,
कभी कभी तो "वो" जिसने ...

आकान्छाओं को गढ़ने की शक्ति दी है
वो भी सोचता होगा ...अरे !
मानव की आकांछा , अपेक्छा
तुम मेरे पास तक आगये ?
चलो अब रेतीले पाषाण की तरह
ढेह जाओ और फिर मानव का उच्छ्वास
कमजोर सा, अशक्त सा , हार जाता है
वो उसके आगे,,,,,,,,,,मगर फिर

इतना भी कमजोर नहीं है मानव

जमा दिए हैं पैर धरा पर
आकान्छाओं के बल बूते पर
रोक सको तो रोक ले मुझको
खाली ना लौटूंगा मैं अब

बड़ी वेवफा साँसें हैं ये ,
इसे वफ़ा सिखलाना है अब
तुमने मुझे बनाया है गर
रेत का प्रस्तर नहीं समझना



तिनकों सा मैं उड़ जाऊंगा
गर मैं रेत के महल बनाऊँ
पर जिसका तल , नीव तुम्हारी 
शायद तुम तक पहुँच भी जाऊं


कब तक मानव मैं मानव सा
मेरी आकान्छाएं ढेह्ती सी
चलो ज़रा ढेह कर ही देखें
वही मिलेगा ढ़हने पर भी

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