पंखुरी से झर गए दल , खुशबू ने क्यों दिशा बदली
by Suman Mishra on Sunday, 2 September 2012 at 15:39 ·
पंखुरी से झर गए दल,
खुशबू ने क्यों दिशा बदली
मन पथ पथिक सा येही है
सब देखता सुनता रहा ...
कभी पथराई सी आँखें
कभी झर झर नीर धारा
कभी कोपल नवलिका सी,
कभी टूटी शाख बाहें
मन सजग है , मन है विह्वल
मन हताशा ठौर ढूढें
कौन सा वो थल है प्रिय वर
मन खुशी के साथ घूमे
रंग दो उसको दल जो टूटा
शाख से निर्जीव होकर
नए रंगों से मिला जो
बन गया वो अलग सा पल
इस धरा से तोड़ नाता
चल दिया जो इस जहां से
अलग सा कोई जहां क्या
बना है जो उसे भाता ?
लौट कर आयेगा वापस
मन तरंगें खींच लेंगी
रास्ता भूला है कुछ दिन
घर का रास्ता ढूढ़ लेंगी
लोग कहते हैं यथार्थ से परे का धरातल......येही धरती और जीवन है या जीवन से परे के धरातल का क्या रूप होगा,,,,शायद जीवन की अंतिम सोपानो के साथ उस धरातल पर अपनी पैठ बनाने के लिए इंसान जद्दो जेहद में कुछ कुछ समझने लगता होगा मगर वो प्रतिबंधित जिसे दैविक प्रतिबन्ध कहते हैं ,,,,खुलासा नहीं कर पाता होगा,,,,,,,
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