Sunday, 30 September 2012

इक चिंगारी मानव की पैदाइश (विचार श्री प्रतुल मिश्र जी के )

इक चिंगारी मानव की पैदाइश (विचार श्री प्रतुल मिश्र जी के )

by Suman Mishra on Monday, 24 September 2012 at 00:55 ·


इक चिंगारी मानव की पैदाइश ,
विस्फोट ही नहीं हुआ और क्या बाकी रहा
मानव अपने शरीर से ऊर्जा प्रवाहित कर सकता है
सूना है देखा है रोशनी को पैदा करते हुए

दूर दूर तक मानव विहीन धरा एक जंगल सी
कुछ जानवर और खर पतवार
मगर क्या जीवन की सम्रिध्हता झलकी
नहीं क्योंकि मानव नहीं था वहाँ
मगर जानवरों के शोर के बीच भी शांति थी ,,,

एक मानव , दो मानव ,असंख्य मानव,
नारी और पुरुष के दल बनते मानव
कई तरह के रूप रंग वाले मानव
मगर रक्त युक्त वाले मानव

इस जमी को बांटते मानव, काटते मानव
खुद केलिए अन्य को जांचते मानव
प्रकृति की आभा को काटते छांटते मानव
हरीतिमा को जलाते हुए राख बनाते मानव...

कहीं एक पत्थर सा कही ठूठ सा मानव
कहीं रुका सा कही भागता मानव
धरा से परे अम्बर पर  दौड़ता मानव
पाताल की गहराई या नभ की ऊंचाई को मापता मानव

मगर है तो ये भी एक शाख के पत्ते की तरह
आखिर टूटेगा ही अंत में फिर वही हश्र ?
दोहराएगा फिर से जीवन की क्रियाये
अभी तो विभक्त होने की दौड़ में शामिल
बस लगा हुआ है दिन रात,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,अंतहीन......मगर......है तो मानव.....

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