मगर हमारी नयी आशाएं, नया विश्वास फिर से जन्म लेता है, एक वर्ष नहीं एक युग का अंत समझकर हम फिर से पुरानी राहों पर चलना शुरू करते हैं ,, इश्वर भी मुस्करा कर मान लेते हैं ...चलो येही सही ..कुछ अच्छी सोच के साथ बदलो तो सही.... :-)
Sunday, 28 December 2014
एक विहान और आगे.....? अस्त के बाद उदय
मगर हमारी नयी आशाएं, नया विश्वास फिर से जन्म लेता है, एक वर्ष नहीं एक युग का अंत समझकर हम फिर से पुरानी राहों पर चलना शुरू करते हैं ,, इश्वर भी मुस्करा कर मान लेते हैं ...चलो येही सही ..कुछ अच्छी सोच के साथ बदलो तो सही.... :-)
Saturday, 25 October 2014
मुड़ा तुड़ा सा ख़त सही
वो मुड़ा तुड़ा सा ख़त सही
कुछ यादें इसमें कैद है
ये रहेगी अंतिम सांस तक
इसे खुलने से परहेज है
कभी मन हुआ तो सोचकर
कभी मन हुआ तो देखकर
क्या लिखा है इसमें यादकर
जह्नो में बस अवशेष है
कभी उड़ गया परिंदे सा
कभी खो गया हेर फेर में
मेरे दिल का टुकडा छुपा हुआ
मेरी जिन्दगी का भेद है
कभी अक्स आता उभर उभर
चाहे दिन हो या हो दोपहर
कभी रात के अँधेरे में
शब्दों से मिल मुझपर असर
मैं रहूँ अगर इस शहर में
ये रहेगा मेरे इर्दगिर्द
ये मुड़ा तुड़ा सा ही ख़त सही
मेरे मन के बहुत करीब है
Friday, 18 July 2014
किस कर्म पे तुम जी पाओगे.,
कुछ तो मर्यादा होती गर
मानव जीवन के रिश्तों में
हर लम्हा है विद्रूप सा यहाँ
कर्मों से गंध निकलती है
वो आदिम युग तो बीत गया
ये हैवानो का युग आया
क्या इसीलिये तुमने खुद को
सभ्यता का जामा पहनाया
हर बार पुरुष ? ये पुरुष ही क्यों ?
मेरे भी शब्द अब दोषी हैं
नारी है शर्मसार तुमसे
तुमसे ही धरती दूषित है
अब क्या रक्षा सीमा की हो
जब माँ की लाज नहीं बचती
छोटी मुनिया को रौंद रौंद
ये पौरुष धर्म ही विकृत है
धिक्कार तुम्हें ओ ! जननायक ( जिन्हें सत्ता मिली है )
किस पर अधिकार चलाओगे
जब लाज शर्म ही रही नहीं
किस कर्म पे तुम जी पाओगे.,
मानव जीवन के रिश्तों में
हर लम्हा है विद्रूप सा यहाँ
कर्मों से गंध निकलती है
वो आदिम युग तो बीत गया
ये हैवानो का युग आया
क्या इसीलिये तुमने खुद को
सभ्यता का जामा पहनाया
हर बार पुरुष ? ये पुरुष ही क्यों ?
मेरे भी शब्द अब दोषी हैं
नारी है शर्मसार तुमसे
तुमसे ही धरती दूषित है
अब क्या रक्षा सीमा की हो
जब माँ की लाज नहीं बचती
छोटी मुनिया को रौंद रौंद
ये पौरुष धर्म ही विकृत है
धिक्कार तुम्हें ओ ! जननायक ( जिन्हें सत्ता मिली है )
किस पर अधिकार चलाओगे
जब लाज शर्म ही रही नहीं
किस कर्म पे तुम जी पाओगे.,
फिर वही सपनो की भाषा
फिर वही सपनो की भाषा
आस में डूबी थी आँखें
था पता वो दूर है अब
दूर हो रही पदचापें
भेजना पाती पहुंचकर
या संदेसा कुशलता का
हम यहाँ अछे रहेंगे
बात बस घर में निवाले
कितनी मजबूरी विरह मन
अश्रु सूखे हैं कभी के
प्राण हाथों में लिए वो
दीप यादों के जलाए
मौन है बचपन अभी तो
प्रश्न जाने कितने पाले
खोज लेगा खुद ही से वो
माँ का दुःख क्यों वो बढाए
एक दिन वो लौट आये
बाँध कर खुशियों के थाले
फिर परागित सुरभि खिलकर
गीत में रंग बसंत वाले
आस में डूबी थी आँखें
था पता वो दूर है अब
दूर हो रही पदचापें
भेजना पाती पहुंचकर
या संदेसा कुशलता का
हम यहाँ अछे रहेंगे
बात बस घर में निवाले
कितनी मजबूरी विरह मन
अश्रु सूखे हैं कभी के
प्राण हाथों में लिए वो
दीप यादों के जलाए
मौन है बचपन अभी तो
प्रश्न जाने कितने पाले
खोज लेगा खुद ही से वो
माँ का दुःख क्यों वो बढाए
एक दिन वो लौट आये
बाँध कर खुशियों के थाले
फिर परागित सुरभि खिलकर
गीत में रंग बसंत वाले
अब पत्थरों से खेलना मुमकिन नहीं रहा
14 July 2014 at 14:00
अब पत्थरों से खेलना
मुमकिन नहीं रहा
बचपन का लौटना
अब ख्वाब रह गया
गलियाँ थी गुंजार पहले
शोर से बहुत
खामोशी इतनी हो गयी
मन बेजार हो गया
वो चश्मई तालाब
तितली , फूल , और जुगनू
पत्थर से यारियां
पलक, मोलू और माहताब
पानी में कोई नुस्ख नहीं
दोआबे सी थी चमक
सपनो में डूबी नीद
गुल्लक में थी खनक
अब तो नजर उठती नहीं
सरे आबरू की खैर
मुस्कान लपेटे रहे
खुद से ही खुद को बैर
कुछ मामले ऐसे की
जन्नत या जहानत
बस नाम ही सुनकर
फना इंसानियत का दौर
वो चौकड़ी भरती है
आँगनो के दायरे
अब पत्थर नहीं रहे
जिनसे खेलना मुमकिन
भाई नहीं रहा
बस नाम ही रहा
राहों में खडा शख्स
अब बदनाम हो गया
मैं पथ से विचलित नहीं
मैं पथ से विचलित नहीं
खोज में हूँ अलग रास्ते की
एक नहीं कई रास्ते
जो इन्हीं चारों दिशाओं के
चौराहों से होकर जाती हों
हम गुमराह नहीं है
बस कुछ समय के लिए
भूलना चाहते हैं वो रास्ते
जिनपर चलकर कदम लडखडाये
मगर उनकी गिरफ्त से
हम ना छूट पाए
हम गुमशुदा नहीं है
बस कुछ समय के लिए
अलग हुआ हूँ अपनों से
कुछ नयी मंजिल जो मेरी अपनी है
मिलते ही वापस आकर
सबसे मिल जाऊंगा
खोज में हूँ अलग रास्ते की
एक नहीं कई रास्ते
जो इन्हीं चारों दिशाओं के
चौराहों से होकर जाती हों
हम गुमराह नहीं है
बस कुछ समय के लिए
भूलना चाहते हैं वो रास्ते
जिनपर चलकर कदम लडखडाये
मगर उनकी गिरफ्त से
हम ना छूट पाए
हम गुमशुदा नहीं है
बस कुछ समय के लिए
अलग हुआ हूँ अपनों से
कुछ नयी मंजिल जो मेरी अपनी है
मिलते ही वापस आकर
सबसे मिल जाऊंगा
क्यों आता है चाँद एक दूल्हे सा बनकर
क्यों आता है चाँद एक दूल्हे सा बनकर
ले आता बारात रोज तारों की भरकर
सूरज क्यों फिर रोज अकेला आ जाता है
शबनम को किरणों के रथ पे ले जाता है
दे देता है शब् की सारी बूँदें उसको
खुदगर्जी है कितनी चाँद के देखो रुतबे
सुबह ओट की सूरज में छिपता फिरता है
तारों को लपेटकर खुद के संग रखता है
इस पर भी नखरे हैं इसके जाने कितने
कभी तिहाई चौथाई में गाल फुलाए
आता है एहसान दिखाने इकरारों में
या फिर गायब नामुराद है बेजारो में
कोई नहीं गीत गाता है सूरज के फिर
करता है नक्काशी मन भर चाँद सितारे
दुनिया भी ऐसी है भैया नखरे सहती
थकी हुयी सी क्या कर लेगी कुछ ना कहती
ले आता बारात रोज तारों की भरकर
सूरज क्यों फिर रोज अकेला आ जाता है
शबनम को किरणों के रथ पे ले जाता है
दे देता है शब् की सारी बूँदें उसको
खुदगर्जी है कितनी चाँद के देखो रुतबे
सुबह ओट की सूरज में छिपता फिरता है
तारों को लपेटकर खुद के संग रखता है
इस पर भी नखरे हैं इसके जाने कितने
कभी तिहाई चौथाई में गाल फुलाए
आता है एहसान दिखाने इकरारों में
या फिर गायब नामुराद है बेजारो में
कोई नहीं गीत गाता है सूरज के फिर
करता है नक्काशी मन भर चाँद सितारे
दुनिया भी ऐसी है भैया नखरे सहती
थकी हुयी सी क्या कर लेगी कुछ ना कहती
कभी पूर्णिमा कभी अमावस्या
कभी पूर्णिमा कभी अमावस्या
हर दिन कोई तिथि और त्यौहार
मगर ये इंसानों का सब कारोबार
अबोध सी वो पर कितना अत्याचार
कुछ लिखो ना ओ ! ऊंचे तबके वालों
बहुत लिख चुके अब चुप बैठो
तुम्हारी लेखनी निकम्मी है
शब्दों की सरहदों के अन्दर रहा करो
कौन सुनता है अब नज्मो गजलों को
उनसे उठाये गए अल्फाजों को
सब दफना दो कहीं गर्त में
आंसुओं से भीग कर निकल आयेंगे
चीख लेना अपने बा-अदब लफ्फाजों से
फोड़ लेना अपनी हार का ठीकरा
शब्दों की सत्ता से बाहर निकलो तो ज़रा
इज्जत और आंसू की नियामत कद्र करो
हर दिन कोई तिथि और त्यौहार
मगर ये इंसानों का सब कारोबार
अबोध सी वो पर कितना अत्याचार
कुछ लिखो ना ओ ! ऊंचे तबके वालों
बहुत लिख चुके अब चुप बैठो
तुम्हारी लेखनी निकम्मी है
शब्दों की सरहदों के अन्दर रहा करो
कौन सुनता है अब नज्मो गजलों को
उनसे उठाये गए अल्फाजों को
सब दफना दो कहीं गर्त में
आंसुओं से भीग कर निकल आयेंगे
चीख लेना अपने बा-अदब लफ्फाजों से
फोड़ लेना अपनी हार का ठीकरा
शब्दों की सत्ता से बाहर निकलो तो ज़रा
इज्जत और आंसू की नियामत कद्र करो
Wednesday, 2 July 2014
रिक्त तिक्त सी
रिक्त तिक्त सी ,
अजब उदासी में लिपटी
देवालय में दिखी थी मुझको
अश्रु भरे उसकी आँखों में
मैंने देखा था जब उसको ,
अजब पहेली लगी थी मुझको
फिर सोचा मैंने भी कुछ क्षण
हर शख्स पहेली ही तो है
राज खोलने में क्या रखा है
सब अपने हैं कर्म के मारे
मन की उलझन, ब्यथा जाल सी
ले आती इश्वर के द्वारे
वो ही माया, वो ही काया
त्रिश्नित , तृप्त वही है करता
फिर हम क्या कर पायेंगे गर वो
याचक बन इश्वर को समर्पित
हे कान्हा तुम कब आओगे
काश कदम्ब की छाँव जो होती
आस पास धेनु रंभाती
मलय, समीर का मिश्रण सा ले
बूँद बूँद मुख पर टपकाती
दूर कहीं कान्हा की बांसुरी
शहद घोल कर मुझे जगाती
अस्त हुआ सूरज भी अब तो
शब्द कपोलित मुझे उठाती
हे कान्हां तुम कब आओगे
यहाँ सुदामा चरित जीव है
तंदुल बांधे घूम रहा मन
बाट जोह कर धुल धूसरित
अभी प्रथा सब बदल चुकी है
कंस हैं जीवित रावण विचरित
मृग जैसे तन भोग भोग कर
मर्यादा है घर की खंडित
मेरी तंद्रा टूट रही है
वही भ्रमित जीवन है आगे
थकने दो ये तन अब निर्बल
जीवन पा सब हुए अभागे
दृश्य समेटे हैं आँखों में
दृश्य समेटे थे जेबों में
अरे वही ! मेरी आँखों से
कुछ गायब है खोज रही हूँ
शायद कहीं गिरे होंगे वो
कुछ धुंधला अवशेष है उनका
अरे वही ! मेरी आँखों में
एक वस्त्र में लिपटी काया
थी अनभिज्ञ गिध्ह नजरों से
एक छवि जो हिलती डूलती
अरे वही ! जो मैं थी विस्मित
था परिधान एक नारी का
मगर पुरुष गज गामिनी बना था
एक ध्वनि जो गूँज रही है
अरे वही ! मेरे कानो में
धूल में लिपटा था अबोध सा
बेच रहा था उज्जवल साबुन
वो पगली जो चीख रही थी
अरे वही ! थोड़ी सी पी कर
सूना वही थी कुछ दिन पहले
दुल्हन बनी किसी एक घर की
एक बड़ा सा चित्र टंगा था
अरे वही ! चलती राहों पर
पेड़ से लटका माला पहने
जेल से निकला कुछ दिन पहले
बाट और मिलन
मैं मिलन की बाट में हूँ
तुम विरह के गीत गाना
हर लहर पर नाम लिखकर
अपनी पाती भेज दूंगा
सांस भरकर पूछना तुम
मेरे वाहक से ज़रा तुम
वो पथिक लम्बे सफ़र का
मेरी पाती बांच देगा
पृथा के पग संग मेरे
लगी माटी अंग मेरे
लौट आऊँगा तुरत ही
बात पर तुम आस रखना
मैं निनादित नाद से हूँ
अधरों के परिहास से हूँ
तुम ज़रा होठों से छू कर
इसको अपने पास रखना
कुछ नहीं बस शून्य ही है
प्रेम अब तक मौन ही है
है बड़ी विकराल लहरें
कर्म की पतवार रखना
माया और मैं
माया कहते हैं मिथ्या है
फिर हम क्यों पापी बनते हैं
रोज वो गढ़ता नया रूप एक
हम खुद पर ही मर मिटते हैं
मिथक और ये मृषा है जीवन
मगर अहम् के पाले में हम
पग तल की जमीन ना अपनी
स्वप्न जीत लंका लायेंगे
क्या कुछ दीनारों का भोगी
कर्म का राजा बन जाता है ?
या फिर खुद के लिए अंत में
राजमहल संग ले जाता है
क्या कुम्हार जो चाक घुमाता
मिटटी से यारी है निभाता
मगर वही फिर लेना देना
अंतिम साँसों में रह जाता
मैं मेरा और कुछ ना तुम्हारा
तोर मोर का सगा ज़माना
देखेंगे आगे क्या होगा
डोर में सब हैं पृथक कहाँ है
Thursday, 19 June 2014
चल आज कहीं तू स्वर्ण खोज
मैं मन तडाग में विहर रहा,
जल राशि नहीं बस रज ही रज
मैं पथिक दिवास्वप्नो का हूँ
ले जाऊंगा गठरी में रोप
दे दूंगा भूखे बच्चों को
गठरी की गाँठ है तनिक कठिन
उनके दुर्बल से हाथ मलिन
खोलेंगे अथक परिश्रम से
कुछ भाव हीन, कुछ मर्म बंधे
मुखरित होंगे उनके मुखपर
पर आशा होगी विस्फारित
नयनो से अधर तक एक बोल
फिर वही निमंत्रण निशा मौन
चांदनी और किरणों के मोल
फिर एक विहान पुकारेगा
चल आज कहीं तू स्वर्ण खोज
जल राशि नहीं बस रज ही रज
मैं पथिक दिवास्वप्नो का हूँ
ले जाऊंगा गठरी में रोप
दे दूंगा भूखे बच्चों को
गठरी की गाँठ है तनिक कठिन
उनके दुर्बल से हाथ मलिन
खोलेंगे अथक परिश्रम से
कुछ भाव हीन, कुछ मर्म बंधे
मुखरित होंगे उनके मुखपर
पर आशा होगी विस्फारित
नयनो से अधर तक एक बोल
फिर वही निमंत्रण निशा मौन
चांदनी और किरणों के मोल
फिर एक विहान पुकारेगा
चल आज कहीं तू स्वर्ण खोज
Friday, 13 June 2014
अबोध सत्य
ओ ! री शानू ,रेनू चल खेलेगे
तू अपनी गुडिया ले अइयो
मेरा गुड्डा देखेगा
थोड़ा बातें वातें कर लेगा
फिर सोचेगा उसके बारे में
अरे जा जा...तेरा गुड्डा कुछ भी सोचे
मेरी गुडिया शर्मीली सी
वो कैसे आएगी मिलने
कह दे अपने गुड्डे से
घोड़ी चढ़ कर ले जाए वो
दीवारों के साथ बतकही
दिवा स्वप्न की तरह से बातें
पीछे से माँ का आ जाना
पीछे छूट गयी बारातें
नहीं नहीं ये स्वप्न नहीं था
सच था बस आगे पड़ाव का
एक बड़ा सा चौराहा आगे
हुए पराये संग निहोरे
मेहँदी, बिंदी, गहने , चन्दा
सब के सब अब साथ रहेंगे
सूरज लाल उवेगा जब तब
दुवा सलाम रोज ही होगी
फिर काहे मन हुवा पराया
सात जनम के बचन साथ ले
अर्थी और पालकी दोनों
अर्थ अलग पर साथ हैं दोनों
Tuesday, 10 June 2014
अपभ्रंश ... नारी
हर तरफ अपभ्रंश जैसी
रूप में साकार है
कोई मदिरा, कोई अमृत
हर दिशा आकार है
ढल गयी हर रूप में वो
मान फिर भी ना मिला
अश्रु में या सीप मोती
बह गया या पिघल गया
क्या ग्रसित है शाप से या
कर्म की ही एक रीत सी
वचनों से ये बंधी क्यों है
मिथक शब्दित प्रीति सी
अबला कह लो , सबला कह दो
भोग्या या शक्ति हो
हर तरफ एक दंश सी है
नारी है या है व्यथा ?
रूप में साकार है
कोई मदिरा, कोई अमृत
हर दिशा आकार है
ढल गयी हर रूप में वो
मान फिर भी ना मिला
अश्रु में या सीप मोती
बह गया या पिघल गया
क्या ग्रसित है शाप से या
कर्म की ही एक रीत सी
वचनों से ये बंधी क्यों है
मिथक शब्दित प्रीति सी
अबला कह लो , सबला कह दो
भोग्या या शक्ति हो
हर तरफ एक दंश सी है
नारी है या है व्यथा ?
Sunday, 1 June 2014
जलकर जो बस राख बनेगी
रत्न जडित नीलम सी आँखें
केश मेघ के जल से तिरोहित
भीगे भीगे केश राशि से
जल की बूँदें बरखा बरसी
बार बार मुख आलिंगन कर
कितने नयनो की छवि बनती
कितने स्वप्नों की परिभाषा
अलग हुयी ना कभी ना टूटी
गर्व गर्विता रही निशा सी
धीमी गति शीतल सी वाणी
पूर्ण चन्द्र की चंद्रिका जैसी
यज्ञ आहुति निर्मल कायान्वित
बीता कल वो एक नाम था
आज अग्नि की सखी बनी है
जाने किस विकृति मन दुर्भिछ
इस चेहरे पर हवन किया है
वो जिसने था उसे बनाया
वो भी नहीं देखता अब तो
फेर के कबसे मुख बैठा है
नहीं आ सका कृष्ण ही बनके
उसकी चीखें मर्मान्तक थीं
कितने थे दुह्शाशन जग में
जला रहे थे इस काया को
कितने अट्टाहास जगे थे
जल कर काया ख़ाक हो गयी
जर्जर तन की माप हो गयी
वो जो अग्नि शिखा सी जलती
जल कर जैसे राख हो गयी
केश मेघ के जल से तिरोहित
भीगे भीगे केश राशि से
जल की बूँदें बरखा बरसी
बार बार मुख आलिंगन कर
कितने नयनो की छवि बनती
कितने स्वप्नों की परिभाषा
अलग हुयी ना कभी ना टूटी
गर्व गर्विता रही निशा सी
धीमी गति शीतल सी वाणी
पूर्ण चन्द्र की चंद्रिका जैसी
यज्ञ आहुति निर्मल कायान्वित
बीता कल वो एक नाम था
आज अग्नि की सखी बनी है
जाने किस विकृति मन दुर्भिछ
इस चेहरे पर हवन किया है
वो जिसने था उसे बनाया
वो भी नहीं देखता अब तो
फेर के कबसे मुख बैठा है
नहीं आ सका कृष्ण ही बनके
उसकी चीखें मर्मान्तक थीं
कितने थे दुह्शाशन जग में
जला रहे थे इस काया को
कितने अट्टाहास जगे थे
जल कर काया ख़ाक हो गयी
जर्जर तन की माप हो गयी
वो जो अग्नि शिखा सी जलती
जल कर जैसे राख हो गयी
Thursday, 29 May 2014
पंख का अतीत
कल मैंने एक पंख था देखा
उड़ आया था तेज हवा में
रात को चुपके खिड़की से यूँ
शांत पडा था बिन साँसों के
कब तक तन से जुड़ा हुआ था
आज अलग फिर भी ना भूला
क्या यादों का लेके जखीरा
अलग हुआ अंतिम साँसों में
मैंने जब अतीत में झांका
कितने आसमान थे नापे
अंतिम है फिर भी है जीवित
मानव तन का पखेरू लागे
काश ये जीवन अपना भी हो
जीवन के अंशों में जीवित
इधर उधर कुछ नजर तो आये
आभासित कुछ मन को अर्जित
Wednesday, 28 May 2014
संबल
ये जमी बंट चुकी है,
आसमा पर भी कई आंखें हैं
बस परिंदों का आना जाना
या फिर जीवन का आवागमन
मत बांटो इस सत्ता को
खुशियों की परिधि को
थोड़ा और बड़ा करो
नि:श्वास छोड़ता इंसान
अब आसमा ना देखे
बढ़ो एक कदम आगे
मिलाकर हाथ शक्ति दो
संयम की मोहर थमाओ
खुशी की जागीर नाम करो
ताकि उसे विश्वास हो
दुःख में वो अकेला नहीं ...
आसमा पर भी कई आंखें हैं
बस परिंदों का आना जाना
या फिर जीवन का आवागमन
मत बांटो इस सत्ता को
खुशियों की परिधि को
थोड़ा और बड़ा करो
नि:श्वास छोड़ता इंसान
अब आसमा ना देखे
बढ़ो एक कदम आगे
मिलाकर हाथ शक्ति दो
संयम की मोहर थमाओ
खुशी की जागीर नाम करो
ताकि उसे विश्वास हो
दुःख में वो अकेला नहीं ...
Friday, 23 May 2014
संभल कर रहना बिटिया तुम,
संभल कर रहना बिटिया तुम,
तुम्हारा इस तरह छुपना ?
क्यों छुपना, अभी तो तुम बच्ची हो
तुम तितली की तरह उडो
फूलों के दल गिनो
रेत से शंख बीनो
मगर तुम्हारा इस तरह छुपना
क्या लोगों में स्नेह ख़तम हो चला है
तुम बिटिया नहीं हाड मांस का पुतला हो
जब तक छुपी हो अच्छा है
वरना नजरें बींधने लगेगी
आंकने लगेगी तुम्हारे कद को
ये पेड़ की ओट काम नहीं आएगी
सड़क की भीड़ तमाशाई बन जायेगी
लोगों को बिटिया नहीं लड़की याद रह जाएगी
तुम्हारा इस तरह छुपना ?
क्यों छुपना, अभी तो तुम बच्ची हो
तुम तितली की तरह उडो
फूलों के दल गिनो
रेत से शंख बीनो
मगर तुम्हारा इस तरह छुपना
क्या लोगों में स्नेह ख़तम हो चला है
तुम बिटिया नहीं हाड मांस का पुतला हो
जब तक छुपी हो अच्छा है
वरना नजरें बींधने लगेगी
आंकने लगेगी तुम्हारे कद को
ये पेड़ की ओट काम नहीं आएगी
सड़क की भीड़ तमाशाई बन जायेगी
लोगों को बिटिया नहीं लड़की याद रह जाएगी
Thursday, 22 May 2014
कुछ टूटता रहता है
जब कुछ टूटता है मुझमे
शोर बहुत परेशान करता है
लोगों का हो - हल्ला
बेवजह हंसी के फ़ौवारे
कहते हैं वेवजह भी हंसना चाहिए
फिर मुझे क्यों नहीं आती ?
क्या ? अरे वही ! बेवजह हंसी
टूट कर विखरने के बाद
हंसी की कोई वजह नहीं होती
मौन और चिंतन दोनों घेरते हैं
मैं अभिमन्यु नहीं बन सकती
मगर वो विषादों का चक्रव्यूह
बहुत कडा घेरा होता है
टूट रहा है अब भी अनवरत
मौन की चीत्कार परेशान करती हैं
कुछ कदम चल कर देखूं
शायद जोड़ सकूं खुद से खुद को
शोर बहुत परेशान करता है
लोगों का हो - हल्ला
बेवजह हंसी के फ़ौवारे
कहते हैं वेवजह भी हंसना चाहिए
फिर मुझे क्यों नहीं आती ?
क्या ? अरे वही ! बेवजह हंसी
टूट कर विखरने के बाद
हंसी की कोई वजह नहीं होती
मौन और चिंतन दोनों घेरते हैं
मैं अभिमन्यु नहीं बन सकती
मगर वो विषादों का चक्रव्यूह
बहुत कडा घेरा होता है
टूट रहा है अब भी अनवरत
मौन की चीत्कार परेशान करती हैं
कुछ कदम चल कर देखूं
शायद जोड़ सकूं खुद से खुद को
Monday, 19 May 2014
मेरा वजूद
मेरे वजूद में अभी दो चार इल्म जुड़ने दो
फिर पुकारना मुझे कबूल होगा तभी
अभी कुछ भी नहीं हूँ बस एक परिंदा हूँ
मुझे पंखों से कुछ ऊंची उड़ान भरने दो
यहाँ जमी पे सभी लोग एक जैसे हैं
अपने मजमून लिए बंद हैं लिफ़ाफ़े में
मुझे अल्फाज समझने में ज़रा वक्त लगे
उनकी मज्मूनियत भी मुझे ज़रा पढने दो
कभी हारा कभी जीता हुआ महसूस करू
ये रिवाजों का सफ़र तय मुझे भी करने दो
कभी काँटों से तार तार हुआ जख्म मेरा
बिना मरहम के मुझे भी ज़रा सँवरने दो
इन्तजार
इन्तजार
इन्तजार मेरा हमेशा से ही प्रिय विषय रहा है.....आज फिर वही शब्द ,,,को अनुभूति में उतार रही हूँ
एक विरहनी राधा या मीरा सी कोई
कहने को तो लोग कहेंगे इन्जार ही
मगर उन्हें जो मिला क्या कोई जान सका है
शब्दों में ही सही नहीं कोई भान सका है ?
एक शून्य और दो नयनो की आवाजाही
जाने क्या क्या भाव तैरते श्वेत सी स्याही
क्या भावी सपने को लेकर इन्जार है
या फिर वर्तमान में कोई प्रेम का राही
माना की हर दिन सूरज से आँख मिलाऊँ
मैं मानव वो परम ब्रम्ह मन को समझाऊँ
फिर भी इन्तजार उसका उसको जानू मैं
तप्त दहक़ की ज्वाला में खुद को सानू मैं
शब्दों का आवाहन उसकी रश्मि रेनू से
जो बंधती है आकर मुझसे तप्त तीर से
आकर लिपट लिपट कर कहती अपना लो अब
मुझे छुडाओ तेज ज्वलित दग्धित बंधन से
कही कहीं इस इन्तजार में दर्द की रेखा ,
नयन सजल या पत्थर से किसने है देखा
क्या निरीह आँखों में आशा की किरने
या फिर जीवन का अंदेशा ये फिर जी लें
मन राही सा भटक रहा है पथ अनजाने
कौन गया फिर ना आया, दिन लगा बीतने
इन्तजार हर पल उसका आस है बाकी
माँ की ममता तड़प रही जैसे बिन पांखी
मगर कहाँ ये परिधि कभी पूरी हो पायी
इन्जार की कड़ी अभी तक ना जुड़ पायी
वही सूर्य जो रोज रात को है छुप जाता
दिखलाता पथ फिर मुझमे ही गुम हो जाता
मैं भी चाँद के तकिये पर फिर सर रख लूंगा
मन भरमा कर स्वप्नों में थोड़ा घूमूंगा
मत कर तू मन आस किसी की देख ले सच को
इन्तजार बस शब्द ..कर्म ही सच जी सच को
एक सुनहली धुप की खातिर
एक सुनहली धुप की खातिर
सूना है सूरज भी तरसा है धुप की खातिर
नख शिख उसका लाल लाल वो ठंडाया सा
कैसे बरसायेगा अब वो धुप के टुकड़े
जब खुद ही सर्दी में लिपटा बर्फाया सा
एक सुनहला धुप का टुकडा काश जो मिलता
बर्फ के टुकड़े में लिपटा बीज भी खिलता
तोड़ पारदर्शी दीवारे जन्म वो लेता
एक फूल ही सही मगर थोडा जी लेता
अभी सर्द की गर्द है फ़ैली धरा गगन पर
स्वप्न नहीं आयेंगे अब तो जमे कहीं पर
अस्वीकार किया क़दमों में स्वप्न विहरना
ओढ़ तिमिर की चादर सोया नयन विछौना
शब्द यात्रा रुकी रही स्वप्नों की खातिर
नहीं कल्पना गढ़ पायी मन रूप अव्यस्थित
ऊँगली के पोरों ने कम्पन से गति थामी
क्या जीवन है थमा थमा सा किसका अनुगामी ?
चलो धुप का आवाहन कर चाय बनाएं
थोड़ा गटके आत्मित मन को राह दिखाएँ
गर्म भाप से सूरज थोडा पी ही लेगा
ऊर्जा के कतरे बुनकर वो जी ही लेगा
क्या मानव ,क्या इश्वर दोनों ही पर्यायी
एक दूसरे के परिपूरक और अनुयायी
गर होता इंसान नहीं तो क्या वो होता
नहीं पूजता कोई फिर तो .......................................?????
जब बरबस ही आँखें नम हो गयी
जब बरबस ही आँखें नम हो गयी
माना की पड़ाव जीवन का ,
येही क्या कम है , दोनों साथ हैं ,
कितने खूबसूरत हैं दोनों,
कितना प्रेम , वात्सल्य, सुख, दुःख
सिमटा हुआ इन हाथों में,
इनका स्पर्श हजारों दुआओं की तरह है
बस देखकर आँखें नम हो गयीं
एक युग और ये दो जोड़ी हाथ ,
कितनी राहों पर आवागमन ,
मर्मों का खजाना ,
एक वंश का विस्तार
अब अशक्तता की राह पर
मगर ईश्वरीय शक्ति से सराबोर...
बस सोचकर आँखें नम हो गयी
कितना अकेलापन, आकाश जैसा सूनापन
तारों की जमात आस पास
मगर अम्बर निरीह, निःशब्द
अपने चिंतन के समुद्र में डूबा हुआ
बस आहों से अपनी अनुभूति कराता हुआ
जीवन संगिनी के सान्धिय, दुलार को तरसता हुआ
जग की नियामतें बेकार हैं अब तो
मन मिलन की उहापोह में
जाने क्यों आँखों के कोरों में आंसू हैं ....
माना की कुछ वर्ष की रेखा ,
हाथ में खींची थी इश्वर ने
पर क्या ये सीधी चलती है ?
धूमिल होती है हर पल में
माना की ये जग अथाह है,
है अनन्त इसकी परिभाषा
फिर क्यों बांधा है मानव को
एक समय जीवन बिन आशा
त्वरित, वेग, गतिमान था जीवन
अब अशक्त है तन से मन से
वो जो बीता था हँसते ही
अब मन रीता है इस पल से
आँखों की कोरों में जल है
एक बूँद जो ढलक ना जाए
क्यों अपने मर्मो का मरहम मैं
जग से आश्वासन पाऊँ
रहने दो ..अब बचा है कितना
खुद से ही खुद को पार लगाऊँ
फिर भी दुःख तो होता ही है....आँखों में जल रोता ही
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