Thursday, 29 May 2014

पंख का अतीत


कल मैंने एक पंख था देखा
उड़ आया था तेज हवा में
रात को चुपके खिड़की से यूँ
शांत पडा था बिन साँसों के

कब तक तन से जुड़ा हुआ था
आज अलग फिर भी ना भूला
क्या यादों का लेके जखीरा
अलग हुआ अंतिम साँसों में

मैंने जब अतीत में झांका
कितने आसमान थे नापे
अंतिम है फिर भी है जीवित
मानव तन का पखेरू लागे

काश ये जीवन अपना भी हो
जीवन के अंशों में जीवित
इधर उधर कुछ नजर तो आये
आभासित कुछ मन को अर्जित

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