Monday, 19 May 2014

जब बरबस ही आँखें नम हो गयी

जब बरबस ही आँखें नम हो गयी

6 December 2013 at 15:21


माना की   पड़ाव   जीवन  का , 
येही क्या कम है , दोनों साथ हैं ,
 कितने खूबसूरत हैं दोनों,  
कितना प्रेम , वात्सल्य, सुख, दुःख  
सिमटा हुआ इन हाथों में,
इनका स्पर्श हजारों दुआओं की तरह है

बस देखकर आँखें नम हो गयीं

एक युग और ये दो जोड़ी  हाथ ,  
कितनी राहों पर आवागमन ,
मर्मों का खजाना ,  
एक वंश का विस्तार  
अब अशक्तता की राह पर  
मगर ईश्वरीय शक्ति से सराबोर... 

बस सोचकर आँखें नम हो गयी



कितना अकेलापन, आकाश जैसा सूनापन
तारों की जमात आस पास  
मगर अम्बर निरीह, निःशब्द  
अपने चिंतन के समुद्र में डूबा हुआ
 बस आहों से अपनी अनुभूति कराता हुआ
जीवन संगिनी के सान्धिय, दुलार को तरसता हुआ  
जग की नियामतें बेकार हैं अब तो
मन मिलन की उहापोह में

जाने क्यों आँखों के कोरों में आंसू हैं ....



माना की कुछ वर्ष की रेखा ,  
हाथ में खींची थी इश्वर ने  
पर क्या ये सीधी  चलती है ?  
धूमिल होती है हर पल में  
माना की ये जग अथाह है,  
है अनन्त इसकी परिभाषा  
फिर क्यों बांधा है मानव को
एक समय जीवन बिन आशा

त्वरित, वेग, गतिमान था जीवन
 अब अशक्त है तन से मन से  
वो जो बीता था हँसते ही  
अब मन रीता है इस पल से

आँखों की कोरों में जल है  
एक बूँद जो ढलक ना जाए
 क्यों अपने मर्मो का मरहम मैं
जग से आश्वासन पाऊँ
रहने दो ..अब बचा है कितना  
खुद से ही खुद को पार लगाऊँ


फिर भी दुःख तो होता ही है....आँखों में जल रोता ही

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