Monday, 19 May 2014

एक सुनहली धुप की खातिर

एक सुनहली धुप की खातिर

6 February 2014 at 09:05

सूना है सूरज भी तरसा है धुप की खातिर
नख शिख उसका लाल लाल वो ठंडाया सा  
कैसे बरसायेगा अब वो धुप के टुकड़े  
जब खुद ही सर्दी में लिपटा बर्फाया सा

एक सुनहला धुप का टुकडा काश जो मिलता
बर्फ के टुकड़े में लिपटा बीज भी खिलता
 तोड़ पारदर्शी दीवारे जन्म वो लेता
एक फूल ही सही मगर थोडा जी लेता


अभी सर्द की गर्द है फ़ैली धरा गगन पर  
स्वप्न नहीं आयेंगे अब तो जमे कहीं पर  
अस्वीकार किया क़दमों में स्वप्न विहरना
ओढ़ तिमिर की चादर सोया नयन विछौना

शब्द यात्रा रुकी रही स्वप्नों की खातिर
नहीं कल्पना गढ़ पायी मन रूप अव्यस्थित
ऊँगली के पोरों ने कम्पन से गति थामी
क्या जीवन है थमा थमा सा किसका अनुगामी ?


चलो धुप का आवाहन कर चाय बनाएं
थोड़ा गटके आत्मित मन को राह दिखाएँ
गर्म भाप से सूरज थोडा पी ही लेगा
ऊर्जा के कतरे बुनकर वो जी ही लेगा 

क्या मानव ,क्या इश्वर दोनों ही पर्यायी
एक दूसरे के परिपूरक और अनुयायी
गर होता इंसान नहीं तो क्या वो होता
नहीं पूजता कोई फिर तो .......................................?????

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