इन्तजार
इन्तजार मेरा हमेशा से ही प्रिय विषय रहा है.....आज फिर वही शब्द ,,,को अनुभूति में उतार रही हूँ
एक विरहनी राधा या मीरा सी कोई
कहने को तो लोग कहेंगे इन्जार ही
मगर उन्हें जो मिला क्या कोई जान सका है
शब्दों में ही सही नहीं कोई भान सका है ?
एक शून्य और दो नयनो की आवाजाही
जाने क्या क्या भाव तैरते श्वेत सी स्याही
क्या भावी सपने को लेकर इन्जार है
या फिर वर्तमान में कोई प्रेम का राही
माना की हर दिन सूरज से आँख मिलाऊँ
मैं मानव वो परम ब्रम्ह मन को समझाऊँ
फिर भी इन्तजार उसका उसको जानू मैं
तप्त दहक़ की ज्वाला में खुद को सानू मैं
शब्दों का आवाहन उसकी रश्मि रेनू से
जो बंधती है आकर मुझसे तप्त तीर से
आकर लिपट लिपट कर कहती अपना लो अब
मुझे छुडाओ तेज ज्वलित दग्धित बंधन से
कही कहीं इस इन्तजार में दर्द की रेखा ,
नयन सजल या पत्थर से किसने है देखा
क्या निरीह आँखों में आशा की किरने
या फिर जीवन का अंदेशा ये फिर जी लें
मन राही सा भटक रहा है पथ अनजाने
कौन गया फिर ना आया, दिन लगा बीतने
इन्तजार हर पल उसका आस है बाकी
माँ की ममता तड़प रही जैसे बिन पांखी
मगर कहाँ ये परिधि कभी पूरी हो पायी
इन्जार की कड़ी अभी तक ना जुड़ पायी
वही सूर्य जो रोज रात को है छुप जाता
दिखलाता पथ फिर मुझमे ही गुम हो जाता
मैं भी चाँद के तकिये पर फिर सर रख लूंगा
मन भरमा कर स्वप्नों में थोड़ा घूमूंगा
मत कर तू मन आस किसी की देख ले सच को
इन्तजार बस शब्द ..कर्म ही सच जी सच को
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