Monday, 5 December 2011

बटुवे की दाल और गोल गोल रोटी

 by Suman Mishra on Monday, 5 December 2011 at 16:17



ये पेंटिंग मेरी सबसे पसंदीदा चित्रों में से है, और शब्दों में श्री रविन्द्र सर द्वारा कहा गया शब्द
माँ की बनायी बटुवे की दाल....क्या खूबसूरती है इन शब्दों में,,जीवन की सारी  बातें इन्हीं दोनों
के आस पास घूमती रहती है,,,आप कहीं भी रहिये, कुछ भी खाइए , कोई भी काम करिए ,,,क्या
रोटी और दाल से छुटकारा है आपको नहीं ना और उसपर माँ के हाथों ....वाह,,,,मैंने ये चित्र अपनी
कई रचनाओं में add किया है ,,,फिर भी जितनी बार देखती हूँ पता नहीं क्यों अजीब सा आकर्षण महसूस
करती हूँ...खूबसूरती, प्रेम, जीवन और जेवण सब तो है इस चित्र में,,,

रात रात भर चाँद को देखा , भूख लगी तो भाग लिए,
क्या कविता क्या भाव यहाँ पर, माँ की रोटी चाँद नहीं.

उसके हाथों की थप थप से दिल की धड़कन प्यार भरी,
माँ ने नहीं खिलाया जब तक, भूख की यूँ हड़ताल रहे,

बटुवे में जो दाल उछलती ,खुशबू मुझे ना भूली है,
गैस और ओवन के दौर में , मन की बात अधूरी है,

अभी कहाँ वो प्यार है मिलता दूरी पे दूरी ही बढे,
माँ तो वहीं उन्हीं पलकों पे रखती हमें ये मन ही पढ़े .
पीली खुशबू दाल की हो या बस एक पुकार हो माँ
दौड़ लगा कर आ जाऊं मैं, दूरी कितने हजार बढे.

                    *****
जाने कब ऐसे दृश्य से रु-बरू हुए थी लेकिन इन दृश्यों में जो
आत्मीयता है वो आज इस आधुनिकता के दौर में कहाँ है,
लोग अपने परिवार में मशगूल , अपनी जिम्मेदारियों में मशगूल,
लेकिन क्या ये स्पर्श जिसमे स्वार्थ का नामों निशाँ नहीं बस उन्हें
हमारे स्वास्थ्य की चिंता, और जाने क्या सपने हमारे लिए,,,
शायद ये मेरी बात आप सबकी बात हो,,,,शुक्रिया...

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