कल्पना के रंग खुली आँखों से या बंद हों तब ?(नेत्र अगर नहीं तो कैसे..और जिनके हैं ?) by Suman Mishra on Sunday, 11 December 2011 at 19:59 एक गीत सूना था ...आँखें खुली हो या हो बंद दीदार उसका होता है.,,,, अब दीदार होगा तो रंगीन ही होगा, कुछ रंग भर लेंगे , मन की तुलिका से, या यथार्थ की कूंची से जो स्वतः है, कोई बैराग के रंग से रंगना चाहता है खुद को, कोई एहसासों के जीवंत रंगों की परत दर परत चदा रहा है, चलो एहसास तो हो की रंगों के हम कितने करीब हैं, इन आखों के परदे के पीछे , हम कितने जहीन हैं, आँखों को बंद कर चलने की आदत डाल तो ले पहले, या बस ख्याली रंगों की फेहरस्त से ही हम रंगीन हैं ? वैसे खयाली पुलाव और ख्याली रंगों में क्या अंतर है.. शायद शगूफों में खुद को शामिल करने जैसा,जो अपना नहीं अपने घर का बताने जैसा, फिर भी लोग इस ख्याली पुलाव को पकाते और खाते जरूर हैं, अकेले नहीं कई लोगों के साथ मिलकर ,इसमें समय की बर्बादी का इंधन जो लगता है, और एक अकेले का ही नहीं कई लोगों के साथ बराबर से लगता है.... ज़रा कुछ देर जबरन बंद कर आँखों से जहां देखो, कदम दर कदमो पे रोड़े, क्या हटते हैं जरा सोचो, येही एक अलग दुनिया है जहां काला अन्धेरा बस, करो कुछ ऐसा अपनी तुलिका,पहुंचे ज़रा उन तक चलो अब फिर से कुछ रंग को हम भी बना डालें , जिन्हें ना पता हो ये रंग, हम उनकी आँखों में ये डाले, ये वो संसार है ऐसा,जिन्हें ना आँख न प्रकाश, ना जाने क्या वो देखंगे , या बस अनुभूति का आकाश. ये जन्नत और दोजख क्या पता उनको यहाँ आकर, येही स्वीकार है जीवन,थोड़ी हिम्मत,थोड़ी मेहनत, अगर कुछ नाम रंग दे दो, कहाँ अंतर करेंगे वो , क्योंकि सपनो के रंग भी तो खुली आंखो से हैं दिखते खुली आँखें उन्हीं की हैं जिनकी आँखें नहीं होती, पतंगों की तरह विचरण ,डोर उसके ही हाथों में, हमारी क्या विसात जो आँख के रहेते हैं धोखे में, बड़ी कल्पित सी ये दुनिया, आँख को बंद कर सोचें. ******
एक गीत सूना था ...आँखें खुली हो या हो बंद दीदार उसका होता है.,,,,
अब दीदार होगा तो रंगीन ही होगा, कुछ रंग भर लेंगे ,
मन की तुलिका से, या यथार्थ की कूंची से जो स्वतः है,
कोई बैराग के रंग से रंगना चाहता है खुद को,
कोई एहसासों के जीवंत रंगों की परत दर परत चदा रहा है,
चलो एहसास तो हो की रंगों के हम कितने करीब हैं,
इन आखों के परदे के पीछे , हम कितने जहीन हैं,
आँखों को बंद कर चलने की आदत डाल तो ले पहले,
या बस ख्याली रंगों की फेहरस्त से ही हम रंगीन हैं ?
वैसे खयाली पुलाव और ख्याली रंगों में क्या अंतर है..
शायद शगूफों में खुद को शामिल करने जैसा,जो अपना नहीं अपने घर का बताने जैसा,
फिर भी लोग इस ख्याली पुलाव को पकाते और खाते जरूर हैं, अकेले नहीं कई लोगों
के साथ मिलकर ,इसमें समय की बर्बादी का इंधन जो लगता है, और एक अकेले का ही
नहीं कई लोगों के साथ बराबर से लगता है....
ज़रा कुछ देर जबरन बंद कर आँखों से जहां देखो,
कदम दर कदमो पे रोड़े, क्या हटते हैं जरा सोचो,
येही एक अलग दुनिया है जहां काला अन्धेरा बस,
करो कुछ ऐसा अपनी तुलिका,पहुंचे ज़रा उन तक
चलो अब फिर से कुछ रंग को हम भी बना डालें ,
जिन्हें ना पता हो ये रंग, हम उनकी आँखों में ये डाले,
ये वो संसार है ऐसा,जिन्हें ना आँख न प्रकाश,
ना जाने क्या वो देखंगे , या बस अनुभूति का आकाश.
ये जन्नत और दोजख क्या पता उनको यहाँ आकर,
येही स्वीकार है जीवन,थोड़ी हिम्मत,थोड़ी मेहनत,
अगर कुछ नाम रंग दे दो, कहाँ अंतर करेंगे वो ,
क्योंकि सपनो के रंग भी तो खुली आंखो से हैं दिखते
खुली आँखें उन्हीं की हैं जिनकी आँखें नहीं होती,
पतंगों की तरह विचरण ,डोर उसके ही हाथों में,
हमारी क्या विसात जो आँख के रहेते हैं धोखे में,
बड़ी कल्पित सी ये दुनिया, आँख को बंद कर सोचें.
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