चलो एक बार रोशनी के पार देखें
by Suman Mishra on Thursday, 1 December 2011 at 11:35
उम्र के लिहाज से रोशनी के मायने बदल रहे हैं,
बचपन मैं देखा तो लौ पर ही नज़र रहती थी,
अब जो देखते हैं तो उस पार नज़र आता है
पतंगों के जले पंखों का मंजर भी दिल दुखाता है,
दीवाली के दिए जले जब एक कतार से पांती में,
दूर दूर तक ज्वाला फटती, मस्ती के धूम धडाकों में,
रोशन मन और राही जब इन राहों पर हंस के चलता है,
अब तो सड़क पे एक खिलौना छूते ही फट पड़ता है,,
सूरज को देखने की चाह में आँखें बंद हो जाती हैं,
अन्धकार में फ़ैल के आँखें बड़ी बड़ी हो जाती हैं,
ये प्रकाश क्या मन के "तम" को हरने में सछम होगा ?
आँख बंद और बुझी रोशनी मन का अंतर्द्वंद होगा.
जहां ये जीवन औना पौना बिका हुआ सौदा जैसा ,
हाथो की रेखाओं पर धड़कन का जाल बिछा कैसा,
मुट्ठी की ताकत से पिसकर, जिन्न चिराग से निकलेगा,
कर देगा उस पार रोशनी, अन्धकार को वेधेगा,
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