by Suman Mishra on Saturday, 17 December 2011 at 16:25
फूल जो सहेजे थे कॉपी के पन्नो में ,
एक अलग सा निशा ,यूँ ही महकता है ,
अभी भी पंखुरियां जुडी हुयी टहनी से,
रंग पर उसका ज़रा सा मटमैला है,
किसी ने पूछ लिया ये किसकी यादों का,
किसकी निशानी ये , किसका ये तोहफा है,
अरे नहीं !कुछ भी नहीं ,ये तो बस फूल ही है,
ऐसे कहीं गिरा मिला, दे दिया घरौंदा है.
सपनो से बात शुरू, पहुंचे हम जाने कहाँ,
ओर नहीं ,छोर नहीं, स्वप्नों का अजब जहां,
पन्नो में पंखुड़िया दब कर सुरछित हैं
स्वप्नों का खुला जहां इधर उधर उडती हैं,
कितना समेटो इसे कहाँ मन ये रुकता है,
इस जहां से परे परे जाने ये विचरता है,
बन्धनों से मुक्त है ये , सारा जहा अपना है,
पर ना इसे बाँध सकूं, छन में ही बिखरता है
स्वप्न से ना कोई रिश्ता, बिखरने का शौक नहीं,
चिड़ियों के कलरव से आँख खुले बोझ नहीं,
जितनी भी फूल यहाँ स्वप्न ने बिखेर दिए,
चुनना है फिर से उन्हें, फिर से सहेज लिए,
हर किसी के साथ ऐसे जिन्दगी भी जुडती है,
तोड़ा किसी ने और , जुड़ना विधा लिखती है,
होते पैबंद यहाँ , मगर नहीं दीखते कही,
ये जोड़ जीवन का , रिश्तों से महकता है,
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