Friday, 16 December 2011

स्वप्न में श्रींगार कर लूं, दिवस तो बीता है यूँ ही..`



by Suman Mishra on Tuesday, 13 December 2011 at 23:50

स्वप्न में श्रींगार कर लूं ,दिवस तो बीता है यूँ ही,
उपमाओं से मन भरा है, अनकहे से प्यार कर लूं,
रात की रानी महकती, सर्प चन्दन से लिपटते,
ये धरा रीति है फिर भी, गगन बिन बादल बरस ले,

उड़ता है मन जाने पंख सा हल्का हुआ यूँ उस गली में,
खेलना और रूठना होता था सखियों की चुहल में,
ये ना जाने की प्रथा में बाँध कर मुझको हैं लाये,
घूंघटों से उड़ता बादल, ना को बरसात भाये.


एक प्रहरी घर की हूँ, पर ना कोई पहरा है मन पर,
सारे बंधन खुल गए हैं, सोचती हूँ आँख बंद कर,
उसकी खुशबू मन बसा लूं, खुद को आत्मसात कर लूं ,
एक चुटकी भर खुशी का अब ज़रा एहसास कर लूं.


ओ रे मन तू बावला है, नियति का है खेल ऐसा,

नारी का मन समझ पहले, हर तरफ रिश्तों का रेला,

ये नहीं तो वो सही जीवन नहीं रस्म जीती,
स्वप्न के श्रींगार से , वो खुश हुयी बस येही रीति.


                      

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