Friday, 16 December 2011

हम जब पुकारेंगे वो मुड़कर आयेगा यह


by Suman Mishra on Friday, 9 December 2011 at 12:15



कागजी कार्रवाइयों में उलझा हुआ है मन
पर शब्द के पन्ने को उड़ा ले गयी हवा,
उड़ने दो हो स्वतंत्र , वो भी खुश ज़रा हो ले,
हम जब पुकारेंगे वो मुड़कर आयेगा यहाँ

बडे रंगीन हैं ये शब्द ,रंगीन पत्तों की तरह,
उड़ते पांखी से इधर उधर रुख हवाओं के,
बदल के मिलते हैं मुझे,अपने रूप रंग में,
मुझे भी पहचानने की कहाँ ख्वाहिश है.


ये तन है शाख और मेरा मन है हवा,
ये मेरे शब्द को ले जाती है ये जाने कहाँ,
नहीं मिलते मुझे वापस जो मेरे अपने थे,
दूरियां हो गयी हैं इनसे इनके भावों से.

कभी मिला कोई पांखी तो पूछ लेंगे पता,
कहीं मिले थे मेरे शब्द , यहाँ उड़ते हुए,
नहीं है शाख पर पत्ते, क्या साथ उनके गए,
नयी कोपल को देख , शायद शाख छोड़ गए,

चलो हम भी तलाश में हैं  काबिल,
एक ही शब्द से औरों का पता पूछेंगे,
हवा का रुख ,महक से मेरा सामना होगा,
पुकार मेरी और वो मेरे सामने होगा.

कहीं सुबह और कहीं शाम की है सरगोशी,
मगर ये दिल कहाँ सुनता है सुबहो शामो की,
इसकी तो जिद्द है की बस मन की बात सुनता रहे,
अन्धेरा रोशनी पे फिर कहीं  ना काबिज हो.                                *****

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