Friday, 16 December 2011

खुशनुमा शाम और शाम की परछाइयां (दूर जाती रोशनी और याद है तन्हाईयाँ)


 by Suman Mishra on Tuesday, 13 December 2011 at 17:34


रात रानी की खुशबू से तरबतर वो पतली डालियाँ,
चाँद से टकरा के चांदनी  का बिखरना यहाँ,
दिन के उजाले में पत्तों के रंग हरे हरे ,
शाम के धुधलके में ये रंग बदलते हुए,

मन के भावों को ठहराव देता भावुक मन,
इन्तजार के लम्हे कहीं कहीं शोर शराबा सा,
कोई सूनी आँखों से राह से बाते करती है,
कोई उसके आने की तैयारी में मशगूल है.


अजीब से परिदृश्य, शाम के पंछी और उनके नीड़
शाखों का भारीपन, हर शाख पर एक शोर सा,
कुछ कठिन सा रास्ता, जिस रास्ते से वो गया,
रोशनी से पूर्ण हो जब आ रहा वो लौट के.


बिछ गया मन रास्तों पे, जिस तरफ गुजरा है वो,
साथ उसके ही रहा मन ,मुड़ के वो जब गया,
ये अगाध प्रेम है , अदृश्य इसके धागे पर,
हर तरफ पीछा किया , तन्हाइयों के साथ बस.

नियति दूरी, मन की है पर मन कहाँ अब अलग है,
जुड़ गया एक डोर से, प्रवाह इसका प्रबल है,
नदी की धारे, ज्यों ज्यों मुड़ के रहती साथ में,
साथ में संवेग से हम शेष या आवेग हो.


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