Friday, 16 December 2011

प्रेम की लहरे ऊंची नीची, धरती और आकाश यहाँ.


by Suman Mishra on Tuesday, 13 December 2011 at 12:23



प्रेम की लहरें ऊंची नीची, धरती और आकाश यहाँ,
कहीं छितिज़ सा मिलन यहाँ पर, कहीं वेदना विरह बना,
कुछ फूलों की पंखुरियों सा, महक महक ये मन में बसे,
कहीं गुलाबी ,हलके से रंग. धीरे से कुछ रंग चढे ,

कुछ बातूनी मन होता है, जाने कितनी बात करे,
एक बार भी ये ना ठहरे, थका कभी ना पथिक चले,
एक तरंगित मन की भाषा, मन के शब्द मन में ही रहे,
पढने वाले पढ़ कर जाने कितने किस्से    कहे सुने ,


एक कली बस आशाओं की कली हमेशा कली रहे,
कभी प्रस्फुटित खुशबू से हो, कभी अश्रु की बूँद बने,
क्यों समाज की ये परिपाटी , बंदिश ,प्रेम के साथ रहे,
क्या मन  मर्यादा के स्वर, लोगों तक ये ना पहुंचे ,


क्या जीवन जब प्रेम नहीं है, प्रेम बिना ये पतझड़ है,

कभी पात धरती पर गिरते, मन बिह्वल बस होते ही,
कभी प्रेममय होकर ये मन छूता है अम्बर को यूँ,
क्या धरती क्या गगन को मापे, प्रेम पथिक जब एक बने .
                      *****

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