by Suman Mishra on Friday, 2 December 2011 at 11:38
सुबह जब ओस की बूंदों को यूँ ही छुआ था मैंने ,
बड़ी ठंडी सी तपिश ने मुझे इस तरह जलाया था,
उसकी आहों से निकल कर अनगिनत लपटें,
उसके जीवन को एक पल मैं ही सुखाया था,
ये क्यों आती है हर रात एक रंग लिए,
हर एक शब् में खुद ही से ढल जाती है,
इतनी खामोशी से आकर ये क्या कहती है,
कोई आवाज नहीं, यूँ ही बिखर जाती है.
मुझे पसंद है तेज गर्मी के सर्द से एहसास,
ये तो रूतबा है जो यूँ ही दिया जाता है,
अपने द्वंदों के नए आयामों को ,
एक सुलझा हुआ रस्ता ही दिखा जाता है,
कभी कभी जब कदम सही पड़ते नहीं,
सीधे रस्तों पे भी ये ऐसे डगमगाते हैं,
कोई तो दर्द जिसे पीने की कोशिश होगी
एक भी घूँट गले से ना उतर पाती है,
कभी इस चाँद से पूछेंगे किस्सा क्या है,
ज़रा सी बूँद और तपिश से रिश्ता तो कहो,
रात को चाँद की निगरानी में बिखरी रहती,
सुबह सूरज की अगवानी का माजरा तो कहो,
एक आधा कभी पूरा मगर बे-आवाज शहर,(रात)
एक की रोशनी में शोर हैं जज्बातों के,(दिन)
निशा के धुंधलके में दबे पांवों से आती है ये
रोशनी पहलू में ले ,,मगर>>> ये दूर चली जाती है,,,
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