Thursday, 12 July 2012

दौर जिंदगी का , सफ़र मेरे शब्दों का,,,साथ साथ चलना है


दौर जिंदगी का , सफ़र मेरे शब्दों का,,,साथ साथ चलना है

by Suman Mishra on Monday, 11 June 2012 at 00:52 ·



हर तरफ सुकुनी जिंदगी नज़र आती है ...सुबह सुबह जहां भाग दौड़ की जिंदगी में इंसान मशगूल है
वही कुछ लोग सुबह से शराब की बोतलों के लिए लाइन लगाये खड़े मिलते हैं , कुछ देर रात के
नशे से उबरे नहीं है और फुटपाथों पर पसरे हुए मिल जायेंगे , कुछ पेड़ों के नीचे चबूतरे
पर नशे की हालत में अलग दुनिया की सैर करते नज़र आ जाते हैं ...जगह जगह लिखा मिलता
है सार्वजानिक स्थान पर धूम्रपान निषेध है,,,और ये दुकाने जो अल सुबह जहर बांटना शुरू कर देती है 
वो सार्वजनिक नहीं है क्या, फिर वहाँ से पीकर इंसान सड़क पर ही गिरेगा या सीधे नशे का तीर
उसे उसके घर पे फेंकेगा,,,,सब देखते सुनते पोलिस वाले आगे बढ़ जाते हैं...शायद क़ानून में
खुले आम पीना सही है और चोरी छुपे पीने वालों पे छापा मार कर पकड़ना लिखा है,,,,,


क्या नशा और क्या होश दोनों ही एक जैसे हैं
कोई होश में गिरा है तो कोई नशे में पडा है

ये गम छुपाने का बड़ा आसान  सा जरिया
चंद  सिक्कों में भर ली गिलास फना हो गए

हैं काम करने वाले बहुत चल रही दुनिया
बेकार पड़े हैं वो तो धरती संभाल ली




इन शहरों की भीड़ , stops पर इन्तजार करते लोग अपनी मंजिलों केलिए , बसों के नंबर
देखते हुए , आगे का खाका खींचते हुए , सड़कों पर लोगों को पहचानने की फेहरिस्त बनाते हुए
जाने कितने चेहरे अलग अलग मगर एक जैसे ,,,क्यों ,,,बस वही हर इंसान काम के अधीन
ऊबन सी होती हुयी कोई नया पन नहीं , जिन्दगी का पहिया बस एक धुरी पर घूमता हुआ
जहां से चला वही रुका , फिर वहीं से चल कर वहीं रुका...कोई अलग जगह नहीं
हुयी भी तो कितने दिन,,,,,आज मेरी नजरें ठहरी कुछ नए पन पर,,,गाँव से आया एक परिवार

 Ethnic पहनावे में कुछ अलग थलग सा दिखता हुआ,,,छप्पर वाले मकानों से आया हुआ
सड़क को पार करने में हिचकिचाता हुआ ,,जेब्रा लाइन का भान नहीं , एक आदमी ने इस परिवार
को सड़क पार कराया ,,,,


क्या जीवन में इतना अलग है उसका जीवन पूर्ण स्वतंत्र सा
हम सड़कों पर बांध कर चलते , वो गाँवों में विहग से उड़ते

नहीं समझ है व्यधानो की ,ज़रा हिमाकत दुःख का नर्तन 
वक्त और मशीन सा जीवन , बंध कर चाभी भरी हुयी है





कभी कभी मन भाग भाग कर छुपता है अनजान शहर में
नाम शहर पर देश अलग सा , उहापोह से अलग विलग हो

छोटे तेल का दीपक ही हो नहीं चाहिए जगमग बाती
तारों से जगमग धरती पर चाँद की बिंदी धरा सुहाती

हरी घास हो पग के नीचे , कोमल सा स्पर्श लगे तन
अभिमंत्रित जीवन से अछा , पूर्ण स्वतंत्र चलो मन उपवन




इन चित्रों की कलात्मकता और उसका जीवन मुझे बहुत ही आकर्षित करते हैं , हर जगह नारी
का चित्रण उसकी अभिलाषा को इंगित करती हुयी,,,जिसमे उसके अपनों का इन्तजार सर्वोपरि है
आज की नारी हो या युगान्तरित शैली की नारी -रोशनी से तारतम्य हमेशा से  रहा है उसका
लातें की रोशनी, दीपक की बाती हो या चूलेह की आग , आधुनिक भाषा में स्टोव...लेकिन बात है रोशनी की
सुबह भोर से अपनों को भेजने की तैयारी और संध्या में आगमन की तैयारी ..बात वही है पहिये की धुरी
की तरह जो बाहर हैं वो भी जो घर में है वो भी


येही सृजन जीवन का है जो एक ही पथ पर रहता हरदम
जहां से उसने द्वार था छोड़ा, वही नियंत्रित आकर ठहरा

एक चुम्बकीय शक्ति सा जीवन जाना आना आकर जाना
मन का अब विस्तार हो कितना ,वो ही गगन और धरा ये माना




बात फिर ख़तम पीने वालों का जीवन , दौडती भागती जिंदगियां , ठहरा हुआ आशावान
जीवन लेकिन सबकी परिणित अग्नि शिखा से,,,,,इसीलिए शहरों के धुएं से परिपूर्ण
जीवन को त्याग कर ग्राम्य जीवन के बाग़ की लकड़ियों को इकट्ठा कर गोल दायरे
में जीवन की अनुभूतियों को बांटते हुए,,,इश्वर से प्रार्थना है मुझे वापस वो जीवन दे
जो मुझे पसंद है ,,,नैसर्गिक जीवन प्रकृति भाड़े की ना हो ,,,,और इसी जीवन में ये
मौक़ा जरूर दे की मैं इन्हें करीब से महसूस कर सकूं ...आमीन

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