फिर भी जीने की अभिलाषा है
by Suman Mishra on Sunday, 1 July 2012 at 01:25 ·
कुछ गर्वित मन हो जाता पर
जीवन के कठिन धरातल से
हर बार गिरा हर बार उठा
पर हार ना मानी दम्भित से
धिक्कार दिया खुद से खुद को
रे ! कैसा है जो ना संभला
देखो ये निर्ममता मन की
"फिर भी जीना अभिलाषा है "
माना वो हरित त्रिन सूख गया
एक बूँद गिरी पर शबनम की
सूरज की तपिश और प्यास बड़ी
स्वर्णिम अग्नी बन लपट चढी
नव ऊर्जित शाख का बौना पन
जो संचित था वो हुआ ख़तम
ये मानव ने इश्वर बनकर
शंखों के नाद से प्राण भरे,,,
"फिर से जीने की अभिलाषा है "
करतल ध्वनि से उत्साहित मन
जन जन के मन में समाहित मन
भालों पे तिलक ही विजय की बस
जीवन की अभिलाषा अर्पित
इस धरा पे जीवन सत्य ही है
इसको अर्पित जो कर्ज लिया
हर सांस में आशा मन्त्र लिए
फिर जीने की अभिलाषा है,,,,,,
फिर जीने की अभिलाषा है ,,,,,,
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