तराशा था सुरों में,,,,तुम्हें मगर रंगों में ढल गए
by Suman Mishra on Friday, 22 June 2012 at 23:47 ·
सात स्वरों की माला से जो सुर निकले थे
इन्द्रधनुष के रंगों में ही सिमट गए वह
कभी कभी ही दीखते हैं बारिश में वो अब
स्वर के मोती मोम में ढल कर पिघल गए है
आशाओं के पंख से ये मन उड़ता था
घनी छाँव बादल के संग संग डग भरता था
जाने क्या पग ठहर गए हैं किसी मोड़ पर
अब मन पांखी नहीं इन्सां बनता है
कभी कभी किरदारों में जीवन दिखता है
प्रश्नों से मन बंट कर खुद पर ही टिकता है
ये तो मेरे जीवन की गाथा ही लिखी हुयी है .
उस किताब का पन्ना दर्पण सा दिखता है
बचपन से यौवन की एक कहानी ही तो
हर इंसा लिख सकता एक जुबानी ही तो
मगर कहीं एक रिश्ता जो अनबूझ पहेली
आ आकर मिलता है मन गुनता रहता है
जाने कितने रंग शोखियों के थे संजोये
हर सीपी के मोती मुक्तक से थे पिरोये
आगे का वो स्वप्न दिवा में धूमिल सा है
इसे देखना पड़ता है आँखों के पीछे
चलो मान लेते हैं एक बार वो सप्तक
पंचम सुर का राग और तालों की धक् धक्
भरे नैन से तुम्हें पुकारा था जब मैंने
रंग बिखर जाते हैं अश्कों की आहट से,
****
No comments:
Post a Comment