सरहद के पार की माँ
by Suman Mishra on Sunday, 24 June 2012 at 01:55 ·
दो आँखों में आशा की किरण
ना धन की चाह बस ये जीवन
आ जाए वापस बाहों में
धड़कन रुक कर चल देगी फिर
क्या अंतर तेरी माँ में है
मिटटी जो बदल गयी है वहाँ
ये ह्रदय वही अधिकार वही
ये धरती फर्क हुयी तो क्या
तारों की बाड़ ने बांटा है
जबरन ये मन का झांसा है
बस एक पुकार सुने ये मन
फिर पुत्र दिशा ना देखेगा
गर आर्त-नाद इस धरती का
खुद अपने लहू से सींचेगा
वर्दी ने दुश्मन बना दिया
ये कर्म से आहुति दे देगा
लो उठा ली मिटटी उस घर की
जी घर पे नाल बंदूकों की
थी टिकी हुयी जाने कबसे
सरहद के पार की धरती की
सरहद के पार की माँ थी मिली
वो भूल गयी अलहदा हूँ मैं
ममता का सूरज दीप्ति भरा
दी दुआ तभी मैं ज़िंदा हूँ
मिट जाए सरहद एक बार
कुछ मोहलत हो इंसानों की
धरती की छाती चौड़ी हो
खाई ना हो दरमयानो की
खुशबू है एक बिलकुल ऐसी
माँ ने माला पहनाई थी
वो फूल खिले हैं पार उधर
उस धरती पर माँ आयी है
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