मैं पुरुष हूँ ....क्या मैं पुरुष हूँ....एक इंसान या पुरुष ही
हर बार नारी, हर जगह नारी क्यों है नारी ,प्रभुत्वाशालिनी नारी या भुक्त्भोगिनी नारी हमेशा एक विषय का आधार नारी
इसलिए ये विषय बस पुरुष पर ही ......कोई भूल हो तो छमा

क्या पुरुष निश्चेत सा हूँ,
भाव मुझ तक नहीं पहुचे
मेरे ही द्वारा सृजन का
लेस दीपक जल उठा है
मैं ! अहम् की नाव खेता
चल पडा हूँ मध्य सागर
मैं ही तो सर्वस्व खुद का
मैं पुरुष मर्मज्ञ सबका

चित्त अस्थिर मन विकल है
मैं पुरुष ये पल विहग है
सोच मेरी पंख इसके
उड़ रहा खुद से अलग है
बाँध मन ये पंख धर लूं
सोच को अब परे कर दूं
कोई सम बल क्या करेगा
किसी का शिकार कर लूं

सूर्य का उगना है जारी
चाँद मध्यम टंगा नभ पर
शोर दुनिया कर रही है
तारों सी है शांति मन पर
मेरे मन का तम नहीं कम
पथिक सा थक गया ये तन
कल कुलांचे मार लूंगा
आज उठने का नहीं मन

मैं पुरुष ये जगत साछी
वज्र सा तन , प्रबल भाषी
झुके मस्तक नमन हो बस
मैं हूँ प्रहरी इस धरा की
कर्म हो कर्तव्या जैसा
मान और मर्यादा का पैसा
स्वेद की धारा लहू सी
मैं पुरुष अभिमान कैसा

पर कमी का मैं हूँ पुतला '
कर्म की दस्तक ना सुनता
कई रंगों की नदी में
मैं डुबो खुद शून्या रहता
क्या करू ये जगत मिथ्या
हर तरफ एहसास दिखता
सबकी नज़रे ठहरी मुझपर
मैं प्रथम अंतिम या सस्ता
हर तरफ खाली अजाने
घंटों के स्वर मुझको सुनाने
बज रहें हैं तार मन में
चल पडा हूँ आशियाँ बनाने
मैं पुरुष हूँ
****
इसलिए ये विषय बस पुरुष पर ही ......कोई भूल हो तो छमा

क्या पुरुष निश्चेत सा हूँ,
भाव मुझ तक नहीं पहुचे
मेरे ही द्वारा सृजन का
लेस दीपक जल उठा है
मैं ! अहम् की नाव खेता
चल पडा हूँ मध्य सागर
मैं ही तो सर्वस्व खुद का
मैं पुरुष मर्मज्ञ सबका

चित्त अस्थिर मन विकल है
मैं पुरुष ये पल विहग है
सोच मेरी पंख इसके
उड़ रहा खुद से अलग है
बाँध मन ये पंख धर लूं
सोच को अब परे कर दूं
कोई सम बल क्या करेगा
किसी का शिकार कर लूं

सूर्य का उगना है जारी
चाँद मध्यम टंगा नभ पर
शोर दुनिया कर रही है
तारों सी है शांति मन पर
मेरे मन का तम नहीं कम
पथिक सा थक गया ये तन
कल कुलांचे मार लूंगा
आज उठने का नहीं मन

मैं पुरुष ये जगत साछी
वज्र सा तन , प्रबल भाषी
झुके मस्तक नमन हो बस
मैं हूँ प्रहरी इस धरा की
कर्म हो कर्तव्या जैसा
मान और मर्यादा का पैसा
स्वेद की धारा लहू सी
मैं पुरुष अभिमान कैसा

पर कमी का मैं हूँ पुतला '
कर्म की दस्तक ना सुनता
कई रंगों की नदी में
मैं डुबो खुद शून्या रहता
क्या करू ये जगत मिथ्या
हर तरफ एहसास दिखता
सबकी नज़रे ठहरी मुझपर
मैं प्रथम अंतिम या सस्ता
हर तरफ खाली अजाने
घंटों के स्वर मुझको सुनाने
बज रहें हैं तार मन में
चल पडा हूँ आशियाँ बनाने
मैं पुरुष हूँ
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