Thursday, 12 July 2012

पहली बारिश एक बूँद की ...धरा और मानव सब त्रिश्नित


पहली बारिश एक बूँद की ...धरा और मानव सब त्रिश्नित

by Suman Mishra on Wednesday, 20 June 2012 at 01:21 ·


पहली बारिश एक बूँद की , मानव और धरा सब तिश्नित
कमल पंखुरी सूख गयी है, भवरे बंद दलों में भर्मित
धरा ताकती प्यासी आँखे लगा टकटकी देख रही है
कब जल की अब धार गिरेगी, बूँद सूख गयी छन से गिरकर


मडराते बादल क्यों आकर क्या ये जायजा लेने आते
कितना जीवन तड़प रहा है, दूर दूर तक धुल उड़ाते
पग कंटक से लगे तो क्या है जल लाना भी  बहुत जरूरी
एक कारवां निकला घर से, दूजे की जाने की बारी




कुछ शबनम की बूंदों ने शब् को आकर था डेरा जमाया
गीली सी पंखुरियां सुरभित, मीठी सी खुशबू  की माया
जब तक जाल रश्मि का ना हो रुक जायेंगी थके पथिक सी
फिर चल देंगी अपने रस्ते , जहां से आयी नेह निभाया

ओ ! बादल क्यों नभ पर ठहरे ,बरसो अब तो धरा पुकारे
शबनम से आकर ठहरे हो , एक बूँद के  बादल जैसे
जीवन कब तक ब्याकुल होगा, नभ भी तो पूजा स्वीकारे
कैसे आयेगा वो मिलने इन्द्रधनुष की सीढ़ी  बनने



हर पुकार में जल की आशा , पुष्प और पत्तों की भाषा
जन जीवन में जल की परिणित, एक बूँद अधरों की शाखा
आंसू जल के स्वेद चमकते , हर जीवन त्रिश्नित है हर पल
समय से ना बरसे जो बादल ,फिर कैसा ये कर्म का अर्पण


शहर गाँव का धू धू जलना , सूर्या प्रखर किरणों का तपना
अब कुंदन सा कौन बनेगा, जहां राख का जारी झड़ना
किस मकरंद से विहग तृप्त हो, फल की आशा कौन करेगा
एक बूँद स्वाति की जैसे ये विशाल जन कहाँ गिनेगा



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