Thursday, 12 July 2012

मैंने चाँद को चाहा था पर सूरज ने साथ निभाया मेरा


मैंने चाँद को चाहा था पर सूरज ने साथ निभाया मेरा

by Suman Mishra on Friday, 15 June 2012 at 14:10 ·




मैंने चाँद को चाहा था, पर सूरज ने साथ निभाया मेरा
चाँद चांदनी दोनों ही थे , मेरे साथ ना रहा अकेला
बादल ओढ़ के सूरज ने बन चाँद किया था मेरा फेरा
मैंने तब मुख फेर लिया था , कसम दिलाई हुआ सवेरा,,,


कभी निशान्वित कितनी बातें, चाँद ने सुनकर भरी थी हामी
कुछ कहने सुनने में बीती , रात चांदनी बस मनमानी
कैसा रिश्ता धवल चांदनी मै क्या जानो मेरा है वो
वो भी तो पूरा था उस दिन , आधा बंटा प्रेम की हानी



तिरते चाँद का अक्स अजब सा जल में लहराता मंधिम सा
चांदनी की थी  शाल फैलाई सोया था उस रात जमी पर
जिसने देखा वही नहाया , वो है सभी का पर ना मेरा
वादा जो उसने किया था, नाम का ही पल में था तोड़ा





सूर्य की ज्वलित आभा , कोमल स्पर्श लाल 
अक्स उसका छणिक सा ही मन की तासीर अजब 
सारे दिन फैला जाल   तम का करता  शिकार 
मन को ऊर्जान्वित कर, चाँद भी है उसका ढाल

दिन के भुलावे में, हलचल बाजारों में
फिरता है मन पांखी, कर्म कारागारों में
कोशिश भी जारी है, चाँद वांद भूल गया
दिवस और सूर्य आज , साथ सभागारों में



       धराशायी मन
कर्ता वो धर्ता वो खेल बस निराले हैं
उसकी हर रचना अटल, हम तो निवाले हैं
मैंने क्या चाहा और उसने है सोच लिया
उसको जो करना था , करके मुख मोड़ लिया

अंतहीन तथ्य है ये सूरज और चाँद अटल
इंसान मन भाव पथिक,ऊपर के नियम सख्त
मेरी जो चाह बनी , जुडी है उसी से कही
माना की नाम अलग. मगर वो कहाँ है बिलग,

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