"आहटे मौजूद हैं जानी भी है पहचानी भी है...मगर वो आहट नहीं साया कोई >>>>>>
by Suman Mishra on Monday, 18 June 2012 at 11:56 ·
आहटों का दौर है हर बात आहट से शुरू है
इन्तजार उसका उसकी आहटों से ख़तम हो
जाने की तो बात क्या वो गया है मुख मोड़ कर
एक पल में ही मुड़ा वो मौन का घर तोड़ कर
आहटों में शब्द का व्यंजन बड़ा ही अलग है
स्वर की पहचानो में कुछ मध्यम कहीं ऊंचा रहा
हर जगह गतिमान है दिन रात का ये शहर भी
सो गया इंसान तो आहट का मंजर और था
शब्द की माला बनाकर पहन लूं मैं उसकी खातिर
कोरे पन्नो को सजाया छुप के मैंने उसकी खातिर
ये चला उड़ कर वहाँ पर जहा उसका रास्ता था
आहटों में अब मैं ढूढूं उसके मन का वास्ता जो था
अजब सा संयोग है ये, यहाँ से उसको मैं बांचूं
उसकी हर तहरीर दिखती आँखों के कोरो में जांचूं
पत्र की मियाद उतनी ये गया वो लौट आये
आहटों की परख मुझको भीड़ से उसको मैं छाटूं
मन के अंतर में दबी है आहटें अपनों की जज्बित
ये कथा सी याद रहती हैं हमेशा खुद में संचित
शोर कितना भी हो कैसा मन वही पे जा के रुकता
लेके आता है कहीं भी आहटों के बिन वो छुपता
स्वप्न में भी उसकी आहट अकन कर मन सजग रहता
आँख गर ये ना खुली तो , वो भला कैसे मिलेगा
चल ज़रा आवाज दे लें ,कोई आहट क्यों ना आयी
भूल कर वो बदल जाए , अपने सुर उससे मिलाये
मगर कुछ आहट नहीं बस मौन के घर से हैं आती
साया सी वो हर तरफ से साथ में चलती ही जाती
मन विरक्ति और विशादित ना ! नहीं ! वो क्यों है आती
लौट जाने को कहो उनसे , जो असहज भाव लाती
खुद नहीं उनको समझ है मोह से मानव भरा है
वो निरंकुश प्रस्तरों सी उस पे छैनी हैं चलाती
छलनी हो जाता ह्रदय ये, मगर कोई सुन ना पाता
अंत में हर आहटों से छूटता है जग का नाता
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