ख़ामोशी भीतर की , बाहर का आलम शोर भरा.
by Suman Mishra on Saturday, 26 November 2011 at 14:10
ये नदिया भी शांत अभी है, लहरों की हलचल है कहाँ,
ठांव रुकी नौका सुस्ताती, जीवन पल भर रुका हुआ,
शोर बहुत था बाहर ज्यों क्रंदन की गति गतिमान हुयी,
मन बहता इन धाराओं मैं , संग उसके जीवन संध्या
खामोशी भीतर की जब जब जड़ फैलाती दिखी ज़रा,
शोर हुआ है कही कहीं पर, तिजारती बाजारों मैं,
चल उठ मन चल ठौर कही ले, इस जग का दस्तूर येही,
कोई छूटा जग बंधन से, मन करता उससे बैर अभी.
ख़ामोशी भीतर थी बाहर सारा आलम बोले है
कौन गया मेरे मन से, मन ही मन से तोले है,
दिल का शीशा टूट गया, पर किरचों से ना जख्म हुआ,
सब दिल के अन्दर का रिश्ता,क्यों सब मन को कुरेदे है
हर गूंगे एहसास की बोली दिल बेचारा बोले था,
उसने ना समझा था इसको, कोई नहीं किसीका है,
कुछ दिन की एहसान पे दुनिया ,हर पल जीना मुश्किल है
एहसासों को शब्द बना दो, महक बने ये जी ले तो.
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