मीठी नदिया समझ ना पायी गहराई की बातों को
by Suman Mishra on Monday, 21 November 2011 at 01:47
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मीठी नदिया समझ ना पायी गहराई की बातों को,
गहराई की बात अधूरी ,ख्वाब हमारा बोले है,
आना पड़ता है जमीन पर ,आसमान से मिलने को,
ये जमीन के एक टुकड़े से , मन के मिलन को जोड़े है,
तरल गरल सब स्वयं समेटे, है प्रवाह जीवन इसमें,
वायु आद्र और नमी लिपट कर , ओस बूँद पडी थल मैं,
मन विह्वल अब चली मिलन को, धरती की सहभागी ये,
वो कठोर और ये है सुकोमल , पुष्प सींचने आयी ये,
आँखों में बन आस चमकती, बादल इसका घर जैसा,
रहती जब तब घूम घूम कर करती धरती का फेरा,
उडती है रूई के जैसी , काले नीले रंग लिए.
विहग रूप धर आसमान मैं , उडी मेघ को संग लिए,
जीवन के कुछ छन से जुडी है, सब अर्पित इसमें सबका,
मन निर्मल और तन है शीशा, सब कुछ इसमें है दिखता,
कब प्रवाह गतिमान बना दे, कब सुशुप्त छुप जाए धरा,
बस निर्झर बन बहे निरन्तर , जीवन की आधार शिला.
एक दीप मैं करू प्रवाहित, एक दीप बस ज्योति जले,
मन प्रकाश या दीप ज्योति से आगे का रास्ता निकले,
माना ये बस छोटी कोशिश , पर ये जीवन भी है छोटा,
क्यों ना बहे संग नदिया के, इसको ही अस्तित्व बना,
इसकी ही भाषा को पढ़कर, ये उन्माद प्रवाहित हो,
धरा मिलन और वेग सी तत्पर,प्रेम मैं सभी समाहित हो,
हमने तो बस पुष्प दिए कुछ, और एक छोटा दीपक,
इसकी गहराई मैं जाकर, बचा अभी ये तन अर्पित
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