Thursday, 3 November 2011


कभी कभी मन खुद को भी ठुकरा देता है,,,

by Suman Mishra on Tuesday, 01 November 2011 at 12:06

हाँ कुछ ऐसा ही होता है, क्या ये सच है बोलो तो ?
मन ही मन का दुश्मन बनता -क्या ये सच है बोलो तो ?
मन ही  मन से द्वन्द है करता -क्या ये सच है बोलो तो ?
उसके दुःख में  खुद को पाता -क्या ये सच है बोलो तो ?

कभी कभी  मन पत्थर बन खुद को ठुकरा देता है यूँ,
चलो हटो अब परे ही रहना , बात ना करना मुझसे तुम,
मन ही मन को समझाता है , क्या कहते हो सोचो तो,
मन ही मन को डांट लगाता , कहता मन को रोको तो,

कभी कभी मन चलता पीछे उन अतीत के आज को मान
नहीं भूलता बीते पल को ,मन को ठगता सच को जान,
क्या लौटेंगे बीते पल या , चला गया वो आयेगा ?
क्या मन को मन देके दिलासा सच को समझा पायेगा ?


कोई नहीं समझ पाया मन ये तिलस्म में बंटता है

इश्वर को दे धोखा मानव खुद को हरदम छलता है,

मन से प्यार बढ़ा कर फिर वो प्यार अधूरा रखता है,

नहीं पूर्ण वो कर सकता मन ,खुद ही मन से डरता है


 

हमने तो इतना जाना है बस खुद से ही प्यार करो,

स्नेह दुलार के भागी बनकर, मन का खुद सत्कार करो.
जो है दूर उसे तुम खींचो , प्रेम डोर ना छोटी हो,
मन के तारों से झंकृत मन, मन ही मन सरगोशी हो.
ऐसा भी क्या जीवन में हरदम यूँ बंध कर रहना है,
मीत नहीं पर , गीत बहुत हैं सुर लहरी में बहना है,
ये बहाव जो प्रबल मधुर सब इसी मोह में आयेंगे,,,
पर कुछ बाकी खाली पन्ने कभी नहीं भर पायेंगे,,

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