Thursday, 17 November 2011

चमकत दमकत नार नवेली - मन की विरह


चमकत दमकत नार नवेली - मन की विरह

by Suman Mishra on Friday, 18 November 2011 at 01:18


चमकत दमकत नार नवेली, छमक बजावत नूपुर की धुन,
निकसत द्वार से दामिनि सी ज्यों, घूघट पट ज्यों एक पहेली,
जल की धार भर जोहत पिय को हाट गए मन भयो अकेली,
दुःख सुख बाँट बाँट ज्यों बतियन, सखियन सो अब भई दुकेली,
वेणी गुथी ,सुरभित फुलेल सो, महकत ज्यों चंपा या चमेली,
सोंध से खुसबू उडी बयार मैं , लै पराग उपवन माँ ठिठोली,
गावत गीत भयो मगन मन सोचत, पी को घर की नार नवेली,
द्वार बुहारत ,सजी अलापना, गौरी गणेश पूजत अलबेली,



मन की बात अब मनही मैं गूंथत ,कौन सुने दुःख नार हिया की,
पी जब से परदेस सिधारे, ताकत राह हर छनहि दुवारे,
सात वचन फेरन मैं लै के, गयो छोड़ मोंहि वहि भिनसारे,
आज महावर रचन जो लागी, पग मानत ना चलन पे ठाड़े,

स्वपन और मन , सखियन को संग, घर परिवार सब हमही संभारे,
पाती ना आवत, दुःख ही बढ़ावत, नारी को जनम अब हमें नसावत,
एक बरस युग लागत जैसे, सुध की आस ना हमें दिखावत,
दीप जलयो मन आस भयो जन, अबकी बरस पिय  आवत आवत,

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