Wednesday, 30 November 2011

मन की देहलीज .....कहीं कच्ची सी कहीं पक्की सी,,,

 by Suman Mishra on Wednesday, 30 November 2011 at 14:06


मन की देहरी कहीं कच्ची सी कहीं पक्की सी,
कभी कभी दरवाजे की दस्तक नहीं सुनती,
थकी हुयी सी ढेह जाती है बारिशों मैं कभी,
कभी जज्बातों से मिलकर यूँ ही बहक जाती है,,,


इस देहलीज़ पर फूल की जरूरत नहीं,
पत्थरों के ढेर से भी कोई फर्क नहीं
देव-स्थान के द्वार की देहलीज से कम नहीं,
भावों के समन्दर के बाँध बांधे गए हैं इसपर.



रिश्तों की चहारदीवारी से घिरी हुयी है 
जीवन मैं कुछ को अभिलाषित है ये,
देहलीज ये जो मन की, स्थिर सी एक विधा है,
सपनो के पंख बनकर इससे ही हैं निकलते,


इसके तरकश मैं तीर बहुत से हैं
कुछ विष बुझे , कुछ फूलों के रस बुझे,
वक्त की तहजीब से सुशुप्त हैं ये,
बस कच्ची पक्की देहरी स्वतंत्र नहीं.
            *****

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