Tuesday, 29 November 2011

एक बार मन अलग थलग सा होकर उसका ही बस हो ले

एक बार मन अलग थलग सा होकर उसका ही बस हो ले 

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ये कोई उपहास नहीं है, अंतरमन  की प्यास नहीं है,
जीवन एक मरुस्थल जैसा, उससे मुझको दूर है जाना
कुछ पथरीले पथ हैं आगे, कुछ मन की ये उठा पटक है,
समतल कोना ह्रदय का ढूढूं, अंतरद्वंद से पार पाना है.

एक ह्रदय और लाखों आहें , कैसे मन की थाह मिलेगी,
कब खुश और ग़मों के बादल , सच्चे  मन की चाह मिलेगी,
पलक पलक आँखों के झरने , झरते हैं दुःख की आहट से,
अभी निराशा दूर है मुझसे, आशा को इस पार लाना है.

क्या ये शब्द है मन की झांकी, शायद कुछ तो सच ही होगा,
मन की बात या लौ बत्ती की, एक साथ जल भस्म मिलेगा,
माथे पर जो लिखा भस्म से, कुछ लौ का अपवाद दिखेगा,
आज अलग कल विलग कहेगा, मिलन धरा का छितिज से होगा,


मन का दर्पण बिन पारे का, सब कुछ आर पार है दिखता,
एक नहीं तो दूजे पल का अंत और आरम्भ ये करता,
अब जो भी हो कुछ पल अपने नाम करू मैं सोच लिया है,
एक बार सब दरकिनार हो, उसको अपना  नाम दिया है.
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