Sunday, 7 August 2011


ये चरण ही याद मुझको, रूप तो अनगिनत हैं प्रभु,
आँखों की गर पलक्क झपकी, रूप बदले पल मैं तेरे,
भाग्य का लेखा लिखा है, उसी के अनुरूप मानव,
रूप भी दिखता है ढल कर, सोचता मन तेरे जानिब,

पुष्प है तुमको समर्पित, और क्या जो नहीं तेरा,
किस विधा को अपना मानू, क्या कहूं ये अब है मेरा,
तुमको ही माना है अपना, ये ही बस स्वीकार कर लो,
मैं ना मीरा ,ना ही राधा, बस ह्रदय मैं वास कर लो,

हे जगत के सर्व पालक, स्वार्थी मन तुमलो पूजें,
तुम ना इसको ध्यान देना, अपना जानो हम अबूझे,
हम हैं मानव जाती के अब क्या करेंगे तुम नहीं तो.
शाख से उड़ जा मिलेंगे.,धरा के कण कण मैं हर सै.

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