Sunday, 7 August 2011

गुलदस्ता.


फूल की खुशबू कहाँ कहाँ तक फैलेगी...>>>>>>>>>>
इसके लिए डाकिये की जरूरत नहीं होती,>>>>>>>
हवा इसकी संवाहक है, वो खुद ब खुद अपना काम करती है..>>>>>

कौन है जो रोक सकता सुरभि के प्रवाह को,
मृदु,मधुर,शीतल समीर खुद सुवासित हो रहा,
हम तो जाकर पास छूकर सोचते हैं भाव को,
प्रकृति की ये सम्पदा उपहार मानव जन जन को,

मुस्करा कर खिलता नित दिन, खुशबू में ही रमित है,
हर पथिक से प्यार करता, ना कभी प्रतिकार करता,
फूल की सु- मृदुल आभा, हर जनित स्वीकार करता,
कौन है वो प्रेम ना हो, पुष्प से इनकार करता,

प्रभू का ये हार बनता, चरणों में हरदम ये चढ़ता,
उम्र की परवाह नहीं है, सब पलों में पलता रहता,
क्यों ना मानव पुष्प जैसा, क्यों सदा प्रहार करता,
टूट कर बिखरेगा मानव ,टूटता है गर गुलदस्ता.

No comments:

Post a Comment