Tuesday, 9 August 2011

अनमोल बूँद

एक बचपन की बारिश इस अंजाम था
हम फ़िदा थे वो पानी के मंजर पे यूँ,
घंटों कागज़ की कश्ती पे होके सवार,
हम उड़ा करते थे भीगे पंखों से यूँ,

आज भी याद है सारा मंजर हमें,
अब भी यादें वहीं जाके रुक जाती हैं,
ढूढते हैं हम बच्चों मैं खुद को कहीं,
उनके संग संग ज़रा हम भी हो आते है,

पर कठिन है ये शहरों की बारिश बड़ी,
कितने गढ़हे बने इनमें पानी भरा,
बारिशों ने है रोका जहां का तहां,
घर पहुँचने की जल्दी इंसा बेबस खडा,

कितनी आसे जुडी हैं किसानों की ही,
हमको मालूम हुआ धान कैसे लगे,
साल भर का तकाजा पूरा है नहीं,
आज बच्चों का पेट बोलो कैसे भरे,

बूँद की मार है, कोई भीगा मदमस्त,
बूँद की मार से टूटा छप्पर भी ध्वस्त,
बूँद की मार से पूरी बिल्डिंग गिरी,
बूँद खेतों मैं अब एक भी ना गिरी,

ओ विधाता कहर क्यों तेरा है कहो,
ये धरा की फ़रियाद थोड़ी तुम तो सुनो,
इंसान वैसे ही लाखो सितम कर रहा,
तुम ना बरसाओगे ,धरती वो तोड़ेगा,


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