Friday, 5 August 2011

नजरिया




कभी देखा जो ये तस्वीर हकीकत ही मुझे दिखती,
इधर नज़रें घुमा कर हम खुद से नज़रें चुराते हैं,
कहीं मासूम के दो हाथ बाद ना जाए मेरे आगे,
येही सब सोच कर हम कार कर शीशे चढाते है,

कभी सोचा था मैंने भी जहां का रुख बदल देंगे,
ये सारी कायनातो को खुद की मुट्ठी मैं रख लेंगे ,
जो होगा हम करेंगे फैसला सबका वही होगा,
हमारी ही जमी होगी, सरहदों का नाम ना होगा,

बदल कर अपनी नज़रों को जरा सोचो क ये क्या है,
वही आँखें, वही चेहरा, वही पलकें सजीली है,
ज़रा कपडे बदल कर कह दो देखे ये जरा शीशा,
कमी तो धुल गयी पानी बहा ,अब क्यों हो धोखे मैं,

कोई अंतर नहीं इसमें ये बस ख़ास वजहें हैं,
नजर और मन से सोचो क्या इन्हें मिलना जरूरी है,
ज़रा सा प्यार से इनको दिला दो कुछ किताबें ही,
मुकम्मल हो जहां इनका, ख़ुशी के ये भी हो आदी,

हमेशा बदल कर नजरें इनायत हो तो अच्छा हो.
वो जो है ,हटो उससे करो कुछ तुम अलहदा सा,
बहुत सुंदर मुझे लगती, जो सोचूँ है तो ये अपनी,
ज़रा कपडे से तन धक् दें तो बने ये भी शेह्जादी
 

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