Saturday, 13 August 2011

जीवन का सांझ सवेरा


कैसा है ये जीवन बोलो ,
दो ही गतियों मैं चलता है,
कभी शाम को जीवन ढलता है,
और सुबह को जीवन पलता है,
मन दुखित यहाँ अंधियारे मैं,
सूरज की किरने जागृत हैं,
कुछ शक्ति मिले , फिर हमजुट हों,
फिर चाँद पे सब क्यों आश्रित हों,

पर चाँद न हो तो फिर कैसे,
स्वप्नीली नीद मिलेगी हमें,
सूरज तो कर्म का ध्योत्तक है,
चांदनी इसकी पोषक है,
माना की सूर्या रश्मि से भरा,
मन रोज उजाला भर लाता,
फिर भी चांदनी मन ही मन,
उसके मन को है बहलाता,
नव ऊर्जा को संचित करके,
जब सुबह काम पर निकला वो,
जो भी अर्जन जो मिला उसे,
सब कुछ बांटा सबको उसने,
पर उसे मिला क्या, प्रश्न बड़ा
.

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