Monday, 8 August 2011

इबारत नयी, पुरानी


कभी इबारतों पे कुछ भी लिखना
इबारतों पे चल रहे कितने,
जाने कितनी बनायी राहें मगर,
हाशिये पर ही रुक गए कितने,

कितना लेखा यहाँ है होता मगर,
कोई तो बात जो कल की लिखता,
सब हैं डूबे यहाँ अतीत से ही,
कल का अंजाम कोई कौन कहे,

हम तो यहाँ वक्त पढने आये हैं,
उसका अंदेशा है जूनून मेरा,
मैने समझा मिजाज उसका भी,
बडे तेवर दिखाता कभी कभी,

ये अतीत बड़ा जान लेवा है यारो ,
इसके ख़्वाबों मैं जागना कैसा होता है,
उसे भुलाना बहुत दर्द देता है सबको,
सामने आज खडा खुशी का पैगाम लिए

No comments:

Post a Comment