Wednesday, 10 August 2011


बचपन मैं झुरमुट मैं खेले मेहँदी की शाखें थी कटीली,
सिलबट्टे पर पीस पीस कर हरे रंग की बात रंगीली,
बड़ा अचम्भा होता था जब हाथों पर बनता था सूरज,
रोज देख कर खुश होते थे चढी ये मेहँदी अब चटकीली,

विदा रस्म पर मेहंदी रचती, बाबुल का घर छोड़ दिया था,
हाथों की मेहँदी है जरूरी , रंग ने नाता जोड़ दिया है,
हर श्रींगार के फूलों सा रंग हल्का सा भी जब चढ़ जाए,
भीनी सी खुशबू है इसमें, मन मैं ये बस रच-बस जाए,

है श्रींगार बड़ा ही सुंदर, श्याम श्याम कह मुख को छुपाती,
राधे हाथ रची जो मेहंदी, कृष्ण को बरबस मुख है चिढाती,
श्याम श्याम मुख चढी ना जब तक, लाल भाई तब राधे जैसी,
सुंदर राधे ,हाथ सुकोमल , राधे श्याम पर रंग चढ़ाती .

और तो और अब केश का रंग भी मेहंदी ही रंगती है भाई,
उम्र दराज जवान हुए है, रंग कर निकले बीच बजारे,
अब कोई पूछे जो उम्र तो अभी सफ़ेद कहाँ है चूलें,
hair कट से पहले रंग कर , देख ना ले कोई भी रंग ले.



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