Wednesday, 3 August 2011

दुशाला


एक दुशाला राम नाम का ग्यानी जन धारण करते,
एक दुशाला माँ के तन पे, कापते हाथ है सिहरते,
एक दुशाला पहन के घूमें जग मैं कर्म निवृति को वो,
एक दुशाला ओढ़ा उसने , जब मन प्राण सब एक हुए,
अंतिम वस्त्र कहो या कुछ भी शब्द नहीं कुछ परिणित है,
सांस नहीं पर ओढ़ दुशाला विदा हुआ वो इस जग से,
जाने तन पर कौन रमा है, तन को छुपा वो जग घूमा,
मन को ढांप ना पाया फिर भी कर्म ही उसका यहाँ रमा,
उसकी चादर ओढी हमने जब तक जीवन चला यहाँ,
साफ़ किया मन के आँचल से, बाकी सब जो रहा यहाँ,
एक फूंक और एक स्वांस से येही दुशाला उडता है,
मन वायु की गति हो जैसे, मन को कभीं ना ढंकता है
जाने कितने छोड़ चले जग, नहीं दुशाला मिला उन्हें,
ठिठुरन है हर पल जीवन मैं डर,भय , संचित स्वप्न यहाँ.

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