तुम पुकार लो......
by Suman Mishra on Friday, 17 August 2012 at 01:04 ·
(विरहिन काया)
वो निश्छल सी , वो निश्चल सी
काया बन जीवन में आयी
हरसिंगार के फूलों सी
मन की क्यारी महक उगाई
मन का बावरा परदेशी वो
चला गया सब छोड़ कमाने
वो दीपक के बाती सी थी
जल जल तम में रही सिरहाने
कभी कभी मन पंख लगा कर
मिल के आयी प्रीती दीवानी
कभी वो राधा कभी मीरा सी
श्याम कहाँ तुम,जग विसराने
(कभी किसी ने प्रेम किया था)
फूल की खुशबू ,हल्की हल्की
पर यादों की टहनी हरी है
माना ये टूटा था उससे
मन पर इसकी छाप वही है
जाने कबसे मौन की स्मृति
छुपी हुयी है इन पन्नो में
हल्का सा स्पर्श नजरों से
बिखर ना जाए एक झोंके में
दरवाजों से बंद ये पन्ने
बने धरोहर उन यादों के
दिल की दस्तक से खोले थे
वो कपाट जो बंद यादों में
(पुकारों का परावर्तन)
आज दौर है दूर देश का
धरती से ग्रह की बातों का
मगर पुकारों की भाषा में
प्रेम प्रेम और प्रेम दीप्ति सा
यादों को पुकार कर देखो
खुद को वही कहीं पाओगे
जहां से पग थे मुडे यहाँ तक
एक ही पल में आ जाओगे
बस कुछ करुना और अश्रु हो
स्वर में आर्त , तड़प की ध्वनि हो
इश्वर की अंजलि के पुष्प सा
विरह , प्रेम मय, शब्द अर्पण हो
एक वेदना जो तडपाती
निकट भी होकर दूर ही जाती
इस पुकार के आवर्तन से
पास में उसके ले ही आती,,,,
No comments:
Post a Comment