प्रेम शब्द की परिभाषा क्या,,,,क्या ये दैविक रीति है जग की ?
by Suman Mishra on Thursday, 16 August 2012 at 01:09 ·

प्रेम शब्द की परिभाषा क्या
क्या ये दैविक रीति है जग की,
हठ है या फिर कोई बगावत
हर जूनून की हद है शामिल
रूह रूह से करती बातें
अनजाने मन में सौगातें
भर थाली के पुष्प के जैसा
हरसिंगार सी महकी रातें

अनजानी सी एक मतवाली
मन को भा गयी अदा निराली
क्या ये जीवन डोर बंधेगी
हल पल खुशबू साथ रहेगी ?
रिश्तों के कच्चे धागों सा ,
भोले मन के अहसासों सा
मान लिया था कब से अपना
पर जीवन ना पाने जैसा.

मन के पिंजरे में रखा है
बाँध के उसको अपना कह के
रोज मुक्त हो उड़ जाता है
फिर आकर दिल जुड़ जाता है
मन की आशा प्रेम के जैसी
सगी सहेली बन गयी किसकी
प्रिय के पंथ सुगम ना दुर्गम
अपनी है बस कह कर हंस दी
मत करना तुम प्यार सरीखा
हद मर्यादा लांघ दे ऐसा
वो तो नीले कृष्ण के जैसा
मुरली के स्वर में डूबा सा ,
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