वेदना के पुष्प हैं ये,,,,सूख कर कांटे बनेगे,,,(आदरनीय श्री रविन्द्र सर की याद में )
by Suman Mishra on Sunday, 26 August 2012 at 13:57 ·
वेदना के पुष्प हैं ये , सूख कर कांटे बनेगे
पंखुरी का रंग छूटा, नेह मन से रहा रीता
अब कहां खुशबू बसेगी, टूटते दल सा दिखेगी
नीद की चिर अवधि सा ही, ये भी मुर्झा के गिरेंगे
सारे रिश्ते रेत से थे, निकले हाथों से फिसल के
डूबना है सोचकर ही साथ छोडा तिनके ने भी
डोर उसकी दिशा अपनी, खेल सारे उसके न्यारे
पाले में हम कहाँ ठहरे , हर विधा का वो खिलाड़ी
हर दिशा बादल से ढक दो , ग्रहों को भी मात दे दो
खेल खेले शर्त अपनी , जीत अपनी वो ही हारे
क्यों बनायी देह उसने , पांच तत्व और कुछ अंगारे
ये क्रिया अब सीखनी है गए को वापस बुला ले (हम)
मैं ने बोला मैं ना जाऊं, क्यों धरा नश्वर बनाऊं
उसकी बातें थी तिलस्मी, आज ये क्यों गीत गाऊँ
था व्यथित जीवन को लेके, मर्म मैं ना समझ पाऊँ
अब मिले हैं पंख मुझको, मत बुलाओ मैं ना आऊँ
मैं लड़ा था जाने कितना , तब मिला किश्तों में जीवन
सांस कम थी , विरहिणी सी जोहती थी बाट उसकी
शब्द में बस ह्रास ही था, अंत का एहसास भी था
क्या करेंगे पुष्प खिलकर, काँटों का संताप जो था
इस कथा का अंत कर दो , कंटकों को भी कुचल दो
माना की ये दर्द देंगे , फिर भी थोड़ा भ्रम ही भर दो
धरा है गर अचल रहती , मैं छितिज सा फिर जुड़ूगा
वेदना के पुष्प सूखे , कंटकों में मैं खिलूँगा,..
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