Sunday, 30 September 2012

हर जिस्म में दुनिया बसती है

हर जिस्म में दुनिया बसती है

by Suman Mishra on Saturday, 11 August 2012 at 21:52 ·



हर जिस्म में दुनिया बसती है ,
इसे सैरगाह तो मत समझो
मन से मन में गर झाँक सको
ये भ्रम से  नहीं सत्यापित है


ऋषियों मुनियों की धरा अचल
क्या कभी द्वन्द में उलझे वो ?
हर मार्ग सुभीता था उनका
भटकाव मगर ना भटके वो ..



त्योहारों की गहमा गहमी 
वो बुझे नैन सहमी सहमी
तांता था लगा उस अनशन में
वो भी उनका हिस्सा थी बनी

वो ललक भविष्य के सूरज की
पर आज वो मैली सी दिखती
कल चाँद से बातें की उसने
बस एक दिलासा सपने की


दुनिया और जिस्म का खेल येही
कुछ रिश्तों से कुछ नाजायज
पर वो क्यों रचता भाग्य मगर
जब कर्म से ही सबकुछ जायज


कुछ मौन यहाँ कुछ चीख रहे
कुछ हक़ कटघरे से खींच रहे
फिर क्या कहना उस नियति को
छप्पर पे छप्पर फाड़ रहा

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