Sunday, 30 September 2012

दरकते चेहरों को जोड़ने की कोशिश

दरकते चेहरों को जोड़ने की कोशिश

by Suman Mishra on Wednesday, 22 August 2012 at 00:39 ·



खेले होगे साथ साथ मगर
बातें भी होंगी जाने कितनी मगर
हालातों के नयन नक्श बदले अगर
दरक गए चेहरे जाने कितने हिस्सों में

बड़ी खूबसूरत बयानी की थी पहली बार
जाने कितने फूलों को समेटा था लब्जों में
मगर मौसम ने रुख बदला तो ये क्या
तवारुफ़ भी नहीं सामने से गुजर गए

कभी शब्दों के तीर चल गए अनजाने में गर
मैंने टांक दिया जो पैबंद बन गए
कितनी भी दूरियों का रस्ता बना दिल में
हम ने वही छोटे रस्ते का था रुख किया


तनहा तो ये जहां कहे वो कहे जो  कहे
हमने तो जख्म पे कई मलहम लगा लिए
कितनी भी सरगोशियों जो तीर सी लगी
एक हंसी की वो ढाल ने परदे गिरा दिए..


एक मर्ज है इंसान यूँ ही खुद को बांचता
आवाज मगर घुट के अन्दर ही जमी है
कितनी ही चीख गूँज कर देती है दुहाई
या खुद की  ही तस्वीर वो  रस्तों पे पडी हो

क्या मिल गया वो अक्स ?जो उसने था बनाया
या  धुल बवंडर से मिली खेल कर गयी
लहरों की वजह  मिट गए सारे ही निशाँ यूँ
बस दिल से बनाया था साहिल पे बैठके

ये आखिरी निशाँ बचा जो खून का ही था
अब बोलो की कहेगा वो अपनी दास्ताँ
कितने उबाल आये थे जब जिस्म में बहा
अब रह गया दागों की तरह मौन छाप सा

कहते हैं लोग क्या कहा है मैंने यहाँ पर
अखबार पढ़ के देख लो हर दिशा की खबर
ये भी उसी के रंग में रंगी तहरीर सी
एक तरफ टुकड़े जिस्म के एक तरफ है परी

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